🌸 राधे राधे! 🌸
आपका स्वागत है इस आध्यात्मिक यात्रा में, जहाँ हम “Bhagavad Gita Chapter 3″ के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण के दिव्य उपदेशों को समझेंगे। तीसरा अध्याय – कर्मयोग (कर्म का मार्ग) हमें यह सिखाता है कि जीवन में निष्काम कर्म (बिना किसी स्वार्थ के कार्य) करना ही सच्ची भक्ति और सफलता का मार्ग है।
क्या आपने कभी सोचा है कि क्या केवल भक्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, या हमें अपने कर्तव्यों का पालन भी करना चाहिए? क्या जीवन में आने वाली परेशानियाँ और संघर्ष हमारे कर्मों का ही परिणाम हैं? यदि हाँ, तो श्री कृष्ण का कर्मयोग पर दिया गया यह दिव्य ज्ञान आपको सही दिशा और नई ऊर्जा प्रदान करेगा।
श्री कृष्ण कहते हैं—
✅ कर्म ही सच्ची पूजा है, बिना कर्म किए जीवन व्यर्थ है।
✅ स्वार्थ रहित कार्य करने वाला व्यक्ति ही सच्ची शांति प्राप्त करता है।
✅ जो कर्म को भगवान के अर्पण कर देता है, वह कभी बंधनों में नहीं बंधता।
तो आइए, “Bhagavad Gita Chapter 3” के इस दिव्य ज्ञान को गहराई से समझें और इसे अपने जीवन में अपनाकर सच्चे कर्मयोगी बनें!
🙏 राधे राधे! 🙏
Table of Contents
Bhagavad Gita Chapter 3 Summary in Hindi – कर्मयोग का महत्व (श्लोक 1-10)
अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण द्वारा कर्मयोग की महत्ता पर पहला उपदेश।

श्लोक 3.1 – ज्ञान और कर्म के बीच का विरोधाभास
संस्कृत:
अर्जुन उवाच |
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ||
अर्थ:
अर्जुन बोले: हे जनार्दन! यदि आपके मत में ज्ञान (बुद्धि) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर आप मुझे इस घोर कर्म (युद्ध) में क्यों लगा रहे हैं?
व्याख्या:
- अर्जुन यहाँ भ्रमित हैं क्योंकि श्रीकृष्ण ने पहले ज्ञान की महिमा बताई थी।
- वह पूछते हैं कि यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है, तो उन्हें युद्ध में क्यों लगाया जा रहा है?
English Explanation:
“O Janardana! If knowledge is superior to action, then why do you engage me in this dreadful war, O Keshava?”
श्लोक 3.2 – अर्जुन की उलझन
संस्कृत:
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ||
अर्थ:
आपके वचन मिश्रित लग रहे हैं, जिससे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। कृपया निश्चित रूप से एक ऐसा मार्ग बताएं जिससे मैं श्रेष्ठतम लाभ प्राप्त कर सकूं।
व्याख्या:
अर्जुन को ऐसा लग रहा है कि श्रीकृष्ण एकसाथ दो बातें कह रहे हैं – कभी ज्ञान का गुणगान, तो कभी कर्म का।
वे स्पष्ट रूप से जानना चाहते हैं कि उनके लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ होगा।
English Explanation:
"Your words seem contradictory and confuse my intellect. Please tell me one definite path that will lead me to the ultimate good."
श्लोक 3.3 – कर्म और ज्ञान के दो मार्ग
संस्कृत:
श्रीभगवानुवाच |
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ||
अर्थ:
श्रीभगवान बोले: हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठा पहले कही गई थी – ज्ञानयोग (सांख्य मार्ग) ज्ञानी व्यक्तियों के लिए और कर्मयोग (कर्म का मार्ग) कर्मशील व्यक्तियों के लिए।
व्याख्या:
- श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष की ओर ले जाते हैं।
- ज्ञानी व्यक्ति ध्यान और आत्मचिंतन से मुक्त होते हैं, जबकि कर्मयोगी अपने कार्यों से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
English Explanation:
“O sinless Arjuna! In this world, I have explained two paths – the path of wisdom (Jnana Yoga) for the contemplative and the path of action (Karma Yoga) for the active.”
श्लोक 3.4 – केवल संन्यास से सिद्धि नहीं
संस्कृत:
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ||
अर्थ:
कर्म न करने मात्र से कोई व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं करता और न ही केवल संन्यास लेने से सिद्धि प्राप्त होती है।
व्याख्या:
- केवल कर्म का त्याग करने से कोई व्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकता।
- मोक्ष के लिए सही कर्म आवश्यक है, केवल कर्मों से भागना समाधान नहीं है।
English Explanation:
“One does not attain freedom from action merely by avoiding work, nor does one achieve perfection by renunciation alone.”
श्लोक 3.5 – कोई भी कर्म से मुक्त नहीं है
संस्कृत:
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ||
अर्थ:
कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि प्रकृति के गुणों के कारण वह अनिवार्य रूप से कर्म करने के लिए बाध्य होता है।
व्याख्या:
- हर व्यक्ति चाहे-अनचाहे कर्म करता है।
- निष्क्रिय रहने की सोच भी एक मानसिक कर्म है, इसलिए कर्म से भागा नहीं जा सकता।
English Explanation:
“No one can remain without action even for a moment, for everyone is compelled to act according to the qualities born of nature.”
श्लोक 3.6 – मिथ्याचार (कृत्रिम संन्यास)
संस्कृत:
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||
अर्थ:
जो व्यक्ति बाहरी रूप से अपने कर्मेंद्रियों को संयमित रखता है, लेकिन मन में विषयों का चिंतन करता है, वह मूर्ख है और उसे पाखंडी कहा जाता है।
व्याख्या:
- बाहरी संन्यास (कर्म का त्याग) कोई लाभ नहीं देता, यदि मन में इच्छाएँ बनी रहती हैं।
- वास्तविक त्याग बाहरी नहीं, बल्कि मानसिक होता है।
English Explanation:
“One who controls the senses externally but dwells upon sense objects in the mind is a hypocrite.”
श्लोक 3.7 – सच्चा कर्मयोगी
संस्कृत:
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ||
अर्थ:
हे अर्जुन! जो व्यक्ति अपने इन्द्रियों को मन से नियंत्रित करता है और आसक्ति के बिना कर्म करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्याख्या:
- सही कर्मयोगी वह है जो अपनी इंद्रियों को संयम में रखकर कर्म करता है।
- बिना आसक्ति के कर्म करना ही श्रेष्ठ जीवन का मार्ग है।
English Explanation:
“One who controls the senses with the mind and engages in action without attachment is superior.”
कर्म करने का महत्व
श्लोक 3.8 – कर्म का महत्व
संस्कृत:
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ||
अर्थ:
तुम अपने कर्तव्य रूप कर्म का पालन करो, क्योंकि कर्म अकर्म (निष्क्रियता) से श्रेष्ठ है। यदि तुम कर्म नहीं करोगे, तो तुम्हारा शरीर भी जीवित नहीं रह सकेगा।
व्याख्या:
- कर्म ही जीवन की मूलभूत आवश्यकता है।
- निष्क्रियता से व्यक्ति का न तो आत्मिक विकास होता है और न ही भौतिक जीवन संभव होता है।
- यहाँ श्रीकृष्ण कर्म करने की अनिवार्यता समझा रहे हैं।
English Explanation:
“Perform your prescribed duties, for action is superior to inaction. Even the maintenance of the body is not possible without work.”
श्लोक 3.9 – कर्म का यज्ञ से संबंध
संस्कृत:
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ||
अर्थ:
यज्ञ (त्याग और परोपकार) के लिए किए गए कर्म के अलावा अन्य सभी कर्म इस संसार में बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए, हे कौन्तेय! आसक्ति को त्यागकर अपने कर्तव्य का पालन करो।
व्याख्या:
- कर्म को यज्ञ के रूप में करने से वह बंधनकारी नहीं होता।
- निष्काम भाव से किया गया कर्म आत्मा को मुक्त करता है।
- स्वार्थ से किया गया कर्म जन्म-मरण के चक्र में बाँधता है।
English Explanation:
“Actions performed for the sake of sacrifice (yajna) do not bind one in this world. Therefore, O Kaunteya, perform your duties without attachment.”
श्लोक 3.10 – यज्ञ और सृष्टि का संबंध
संस्कृत:
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ||
अर्थ:
सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने यज्ञ सहित प्रजाओं को उत्पन्न कर कहा – ‘‘तुम यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करो। यह यज्ञ तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होगा।’’
व्याख्या:
- यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र नहीं, बल्कि समाज के कल्याण हेतु किया गया कोई भी कर्म है।
- सृष्टि का आधार परस्पर सहयोग और त्याग है।
- जो व्यक्ति यज्ञभाव से कर्म करता है, उसकी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
English Explanation:
“In the beginning, the Creator created mankind along with sacrifice and said, ‘By this sacrifice, you shall prosper, and it shall fulfill your desires.’”
Bhagavad Gita Chapter 3 Summary in Hindi – स्वार्थ रहित कर्म और धर्म (श्लोक 11-20)
कर्म करने की आवश्यकता और यज्ञ आधारित जीवन की शिक्षा।

श्लोक 3.11 – परस्पर सहयोग से उन्नति
संस्कृत:
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ||
अर्थ:
यज्ञ के माध्यम से देवताओं को संतुष्ट करो, और वे तुम्हें आशीर्वाद देंगे। इस परस्पर सहयोग से तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।
व्याख्या:
- देवता प्रकृति के विभिन्न तत्वों का प्रतीक हैं (सूर्य, जल, वायु आदि)।
- जब मनुष्य सही कर्म करता है, तो प्रकृति भी उसे शुभ फल देती है।
- परस्पर सहयोग से ही समाज और सृष्टि का विकास संभव है।
English Explanation:
“Nourish the gods through sacrifice, and they will in turn nourish you. By supporting one another, you shall attain supreme welfare.”
श्लोक 3.12 – यज्ञ से प्राप्त वस्तुओं का उचित उपयोग
संस्कृत:
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ||
अर्थ:
यज्ञ से संतुष्ट देवता तुम्हें आवश्यक भोग-सामग्री प्रदान करेंगे। लेकिन जो व्यक्ति इन वस्तुओं को बिना यज्ञ किए उपभोग करता है, वह चोर के समान है।
व्याख्या:
- प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं का उपयोग केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं करना चाहिए।
- समाज और सृष्टि के कल्याण के लिए भी इनका उपयोग आवश्यक है।
- स्वार्थी व्यक्ति को श्रीकृष्ण ‘चोर’ की संज्ञा दे रहे हैं, क्योंकि वह प्रकृति से लेता तो है, लेकिन वापस कुछ नहीं देता।
English Explanation:
“The gods will grant you all desired enjoyments if you satisfy them through sacrifice. But one who consumes without offering back is nothing but a thief.”
श्लोक 3.13 – यज्ञ का पवित्र प्रभाव
संस्कृत:
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ||
अर्थ:
यज्ञ से बचा हुआ प्रसाद ग्रहण करने वाले संत सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो व्यक्ति केवल अपने लिए भोजन पकाता है, वह पाप का उपभोग करता है।
व्याख्या:
- यज्ञ से प्राप्त भोजन या वस्तु पवित्र और पापमुक्त होती है।
- स्वार्थी व्यक्ति अपने ही कर्मों से स्वयं को पापों में बाँधता है।
- संतोष और परोपकार से भरा जीवन ही आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है।
English Explanation:
“The righteous, who partake of what remains after sacrifice, are freed from all sins. But those who prepare food only for themselves eat only sin.”
कर्म का महत्व और यज्ञ की भावना
श्लोक 3.14 – यज्ञ से संसार की संतुलित व्यवस्था
संस्कृत:
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ||
अर्थ:
अन्न से सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, यज्ञ से वर्षा होती है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।
व्याख्या:
- श्रीकृष्ण यहाँ प्रकृति के चक्र को समझा रहे हैं।
- मनुष्य के कर्म से यज्ञ उत्पन्न होता है, यज्ञ से वर्षा होती है, और वर्षा से अन्न उत्पन्न होकर जीवन चलता है।
- यदि यज्ञ रूपी कर्म का पालन नहीं किया जाए, तो यह संतुलन बिगड़ सकता है।
English Explanation:
“All living beings are sustained by food, food is produced by rain, rain occurs due to sacrifice, and sacrifice is born of prescribed duties.”
श्लोक 3.15 – यज्ञ और ब्रह्म का संबंध
संस्कृत:
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ||
अर्थ:
कर्म ब्रह्म से उत्पन्न होता है, और ब्रह्म अविनाशी परम तत्व से उत्पन्न हुआ है। इसलिए, सर्वव्यापी ब्रह्म सदा यज्ञ में स्थित है।
व्याख्या:
- सभी कर्म परम सत्य (ब्रह्म) से उत्पन्न होते हैं।
- जब व्यक्ति अपने कर्म को यज्ञ (निष्काम सेवा) के रूप में करता है, तो वह ब्रह्म से जुड़ जाता है।
- यज्ञ केवल अग्निहोत्र नहीं, बल्कि समर्पण और परोपकार से किया गया हर कार्य है।
English Explanation:
“All actions originate from Brahman, and Brahman arises from the eternal. Thus, the all-pervading Brahman is always established in sacrifice.”
श्लोक 3.16 – यज्ञ चक्र को न अपनाने वाला व्यक्ति
संस्कृत:
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||
अर्थ:
जो इस चक्र (यज्ञ, वर्षा, अन्न और जीवन) का पालन नहीं करता और केवल इंद्रियों के सुख में लिप्त रहता है, वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।
व्याख्या:
- समाज और प्रकृति के चक्र में सहयोग करना आवश्यक है।
- केवल इंद्रियों के भोग में लिप्त रहकर जीने वाला व्यक्ति आत्मा के उद्देश्य को भूल जाता है।
- निष्काम कर्म (सेवा और परोपकार) से व्यक्ति सच्चे सुख और उन्नति को प्राप्त करता है।
English Explanation:
“One who does not follow the cycle set forth in creation, who indulges only in sensory pleasures, lives a sinful and futile life.”
श्लोक 3.17 – आत्मसंतोषी व्यक्ति के लिए कर्म
संस्कृत:
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ||
अर्थ:
जो व्यक्ति आत्मा में आनंद लेता है, आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, और आत्मा में ही तृप्त होता है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।
व्याख्या:
- यहाँ एक आत्मज्ञानी व्यक्ति का वर्णन है, जिसे बाहरी कर्म की कोई आवश्यकता नहीं होती।
- ऐसा व्यक्ति स्वयं में पूर्ण होता है और उसे किसी भौतिक उपलब्धि की आवश्यकता नहीं होती।
- यह अवस्था गीता के ‘निष्काम कर्म’ के उच्चतम स्तर को दर्शाती है।
English Explanation:
“The one who finds joy, satisfaction, and fulfillment within the self alone has no duty left to perform.”
श्लोक 3.18 – आत्मज्ञानी का कर्म से संबंध
संस्कृत:
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ||
अर्थ:
ऐसे व्यक्ति को न तो किसी कर्म को करने से लाभ होता है और न ही कर्म न करने से कोई हानि। उसे किसी भी प्राणी से कोई आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं होती।
व्याख्या:
- आत्मज्ञानी व्यक्ति बाहरी कर्मों पर निर्भर नहीं होता।
- वह किसी भी उपलब्धि या विफलता से प्रभावित नहीं होता।
- उसका जीवन आत्मा के आनंद में ही स्थित होता है।
English Explanation:
“He has no interest in what is done or not done, nor does he depend on anyone for anything.”
आदर्श पुरुष का कर्म करने का तरीका
श्लोक 3.19 – आसक्ति रहित कर्म
संस्कृत:
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ||
अर्थ:
इसलिए, बिना किसी आसक्ति के अपने कर्तव्यों का पालन करो। जो व्यक्ति आसक्ति रहित होकर कर्म करता है, वह परम पद को प्राप्त करता है।
व्याख्या:
- निष्काम कर्म योग का मूल सिद्धांत यही है – बिना फल की चिंता किए कर्म करना।
- कर्म को त्यागने के बजाय, उसे समर्पण और सेवा भाव से करना चाहिए।
- जब व्यक्ति निष्काम भाव से कार्य करता है, तो वह ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है।
English Explanation:
“Therefore, always perform your duties without attachment. By acting without attachment, a person attains the Supreme.”
श्लोक 3.20 – कर्म से सिद्धि प्राप्त करने वाले महापुरुष
संस्कृत:
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ||
अर्थ:
राजा जनक जैसे महापुरुष भी केवल कर्म करके सिद्धि को प्राप्त हुए। इसलिए, लोककल्याण के लिए तुम्हें भी कर्म करना चाहिए।
व्याख्या:
- केवल ध्यान या संन्यास से नहीं, बल्कि कर्म के माध्यम से भी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
- राजा जनक जैसे ज्ञानी भी अपने कर्तव्यों का पालन करते थे।
- इसलिए, हमें भी समाज और लोकहित के लिए अपने कार्य करने चाहिए।
English Explanation:
“Great kings like Janaka attained perfection through action alone. Therefore, you too should perform your duties for the welfare of the world.”
Bhagavad Gita Chapter 3 Summary in Hindi – निष्काम कर्म का सिद्धांत (श्लोक 21-30)
श्रीकृष्ण बताते हैं कि कैसे कर्म करने से समाज को प्रेरित किया जाता है।

श्लोक 3.21 – श्रेष्ठ व्यक्ति का आचरण
संस्कृत:
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||
अर्थ:
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, अन्य लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं। वह जो भी आदर्श स्थापित करते हैं, संसार उसी का अनुसरण करता है।
व्याख्या:
- महान व्यक्तियों का आचरण समाज के लिए आदर्श होता है।
- यदि नेता या शिक्षक अच्छा कार्य करेंगे, तो जनता भी उसका अनुसरण करेगी।
- इसलिए, श्रेष्ठ व्यक्ति को सदैव अच्छा आचरण करना चाहिए।
English Explanation:
“Whatever a great person does, others follow. The standard he sets, the world adopts.”
श्लोक 3.22 – भगवान का कर्म में प्रवृत्त रहना
संस्कृत:
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि |
अर्थ:
हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है, न कुछ अप्राप्त है और न ही कुछ प्राप्त करने योग्य। फिर भी मैं कर्म करता हूँ।
व्याख्या:
- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पूर्ण हैं, उन्हें कुछ भी प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है।
- फिर भी वे कर्म करते हैं ताकि संसार को सही मार्ग दिखा सकें।
- यह हमें सिखाता है कि कोई भी कर्तव्य से ऊपर नहीं है।
English Explanation:
“O Arjuna, I have no duty in the three worlds, nor do I lack anything, yet I am always engaged in action.”
श्लोक 3.23 – भगवान के कर्म न करने पर प्रभाव
संस्कृत:
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||
अर्थ:
यदि मैं कर्म न करूँ, तो सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्म करना छोड़ देंगे।
व्याख्या:
- भगवान श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि यदि वे स्वयं कर्म करना छोड़ दें, तो पूरी दुनिया कर्महीन हो जाएगी।
- यदि नेता या श्रेष्ठ व्यक्ति कर्म नहीं करेंगे, तो समाज भी आलसी हो जाएगा।
- इसलिए, हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
English Explanation:
“If I ever refrain from action, O Arjuna, all men would follow my path and cease working.”
श्लोक 3.24 – भगवान के कर्म न करने का दुष्प्रभाव
संस्कृत:
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् |
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ||
अर्थ:
यदि मैं कर्म न करूँ, तो सभी लोक नष्ट हो जाएंगे। मैं समाज में अराजकता का कारण बनूँगा और प्रजा का नाश कर दूँगा।
व्याख्या:
- यदि श्रेष्ठ लोग कर्म न करें, तो समाज का संतुलन बिगड़ जाएगा।
- सभी को अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे वे कितने भी महान क्यों न हों।
- भगवान स्वयं कर्मयोग का पालन करके हमें यह शिक्षा दे रहे हैं।
English Explanation:
“If I do not act, the world will perish. I would be the cause of chaos and destruction of society.”
श्लोक 3.25 – विद्वान व्यक्ति का कर्तव्य
संस्कृत:
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ||
अर्थ:
हे भारत! जैसे अज्ञानी लोग कर्म में आसक्त होकर कार्य करते हैं, वैसे ही विद्वान व्यक्ति को भी आसक्ति रहित होकर लोकहित के लिए कर्म करना चाहिए।
व्याख्या:
- अज्ञानी लोग स्वार्थवश कर्म करते हैं, लेकिन ज्ञानी व्यक्ति को परोपकार के लिए कर्म करना चाहिए।
- विद्वान व्यक्ति को समाज के कल्याण के लिए प्रेरणा बनना चाहिए।
- निष्काम कर्म ही श्रेष्ठ कर्म है।
English Explanation:
“Just as the ignorant work with attachment, the wise must also act, but without attachment, for the welfare of the world.”
श्लोक 3.26 – अज्ञानी लोगों को भ्रमित न करना
संस्कृत:
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ||
अर्थ:
ज्ञानी को चाहिए कि वह अज्ञानी लोगों में भ्रम न उत्पन्न करे, बल्कि स्वयं कर्म करते हुए उन्हें प्रेरित करे।
व्याख्या:
- ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानी लोगों की आलोचना नहीं करनी चाहिए, बल्कि उन्हें सही मार्ग दिखाना चाहिए।
- कर्मयोग का आदर्श प्रस्तुत करके समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए।
- शिक्षा और प्रेरणा से ही अज्ञानता को दूर किया जा सकता है।
English Explanation:
“The wise should not disturb the ignorant attached to action but inspire them through their own example.”
श्लोक 3.27 – अहंकार और कर्म
संस्कृत:
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||
अर्थ:
सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, लेकिन अहंकार से अज्ञानता में डूबा हुआ व्यक्ति सोचता है कि वह स्वयं कर्ता है।
व्याख्या:
- यह समझना आवश्यक है कि सभी कर्म प्रकृति और उसके तीन गुणों (सत्व, रज, तम) के अनुसार होते हैं।
- अहंकारी व्यक्ति सोचता है कि वह स्वयं सब कुछ कर रहा है, जबकि यह प्रकृति का खेल है।
- सच्चा ज्ञानी व्यक्ति अहंकार से मुक्त होता है।
English Explanation:
“All actions are performed by nature’s modes, but the deluded, egoistic person believes he is the doer.”
श्लोक 3.30 – भगवान की शरण में कर्म करना
संस्कृत:
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा |
निर्वाशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||
अर्थ:
अपने सभी कर्मों को मुझमें समर्पित करो, मन और बुद्धि को मुझमें लगाओ, ममता और अहंकार से रहित होकर युद्ध करो।
व्याख्या:
- कर्म को भगवान को समर्पित करना ही सच्चा कर्मयोग है।
- किसी भी कार्य को अहंकार और स्वार्थ से नहीं, बल्कि सेवा भाव से करना चाहिए।
- जो व्यक्ति ईश्वर की शरण में रहकर कर्म करता है, वह भय और चिंता से मुक्त हो जाता है।
English Explanation:
“Dedicate all your actions to Me, with your mind and soul focused on Me. Free from desire and ego, fight without hesitation.”
Bhagavad Gita Chapter 3 Summary in Hindi – कर्तव्य पालन का महत्व (श्लोक 31-40)
कर्म करने से व्यक्ति कैसे बंधनों से मुक्त होता है।


श्लोक 3.31 – भगवान के मत का पालन करने वाले लोग
संस्कृत:
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ||
अर्थ:
जो लोग मेरे इस मत का श्रद्धा और विश्वास के साथ पालन करते हैं और ईर्ष्या नहीं रखते, वे सभी कर्मों से मुक्त हो जाते हैं।
व्याख्या:
- जो व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण की दी गई शिक्षाओं को पूरी श्रद्धा और निष्ठा से अपनाते हैं, वे पाप और बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
- निष्काम कर्म योग के मार्ग को अपनाने से जीवन में शांति और मुक्ति प्राप्त होती है।
- संदेह और ईर्ष्या से मुक्त होकर भगवान के आदेशों को स्वीकार करना चाहिए।
English Explanation:
“Those who follow My teachings with faith and without envy are freed from the bondage of actions.”
श्लोक 3.32 – भगवान के मत का विरोध करने वाले लोग
संस्कृत:
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ||
अर्थ:
जो लोग इस मत का अनादर करते हैं और इसका पालन नहीं करते, वे अज्ञान से मोहित होकर नष्ट हो जाते हैं।
व्याख्या:
- जो लोग भगवान के उपदेशों का उपहास करते हैं और उनके अनुसार नहीं चलते, वे अज्ञान और मोह में फँसकर अपने विनाश की ओर बढ़ते हैं।
- सही ज्ञान प्राप्त करने के बावजूद, यदि कोई उसे अस्वीकार करता है, तो वह अधोगति को प्राप्त होता है।
- सच्चा ज्ञान वही है, जो व्यवहार में लाया जाए।
English Explanation:
“Those who criticize and refuse to follow My teachings are deluded and doomed to destruction.”
श्लोक 3.33 – प्रकृति के अनुसार व्यवहार
संस्कृत:
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||
अर्थ:
ज्ञानवान व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी जीव अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं, फिर जबरदस्ती रोकने से क्या लाभ?
व्याख्या:
- हर व्यक्ति अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुसार कर्म करता है।
- केवल बलपूर्वक किसी को बदलना संभव नहीं है, बल्कि सही दिशा में प्रेरित करना आवश्यक है।
- आत्मज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य अपनी प्रकृति से ऊपर उठ सकता है।
English Explanation:
“Even the wise act according to their nature. Beings follow their nature; what will restraint accomplish?”
श्लोक 3.34 – राग (आसक्ति) और द्वेष से बचना
संस्कृत:
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||
अर्थ:
इंद्रियों के विषयों में राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) होते हैं, लेकिन मनुष्य को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये दोनों उसके मार्ग में बाधक हैं।
व्याख्या:
- हर व्यक्ति को इंद्रियों के सुख-दुःख में फँसने से बचना चाहिए।
- राग और द्वेष से प्रभावित होकर लिया गया कोई भी निर्णय जीवन में अशांति लाता है।
- मन, बुद्धि और आत्मसंयम के द्वारा ही इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
English Explanation:
“Attachment and aversion exist for sense objects. One should not come under their sway, for they are his enemies.”
श्लोक 3.35 – अपने धर्म का पालन करना श्रेष्ठ है
संस्कृत:
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ||
अर्थ:
अपना धर्म दोषयुक्त भी हो तो भी श्रेष्ठ है, दूसरों के धर्म का पालन करना भयावह है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारी है।
व्याख्या:
- हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे वे कठिन ही क्यों न हों।
- किसी और के मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य अपने असली उद्देश्य से भटक जाता है।
- सच्चा संतोष और सफलता अपने धर्म के पालन में ही मिलती है।
English Explanation:
“It is better to follow one’s own dharma imperfectly than to perform another’s dharma perfectly. Death in one’s own dharma is better than the danger of following another’s.”
श्लोक 3.36 – अर्जुन का संदेह
संस्कृत:
अर्जुन उवाच |
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||
अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: हे कृष्ण! मनुष्य अनिच्छा होने पर भी पाप करने के लिए विवश क्यों हो जाता है, मानो कोई उसे बलपूर्वक प्रेरित कर रहा हो?
व्याख्या:
- अर्जुन जानना चाहते हैं कि मनुष्य अपनी इच्छाशक्ति के विरुद्ध पाप क्यों करता है।
- कई बार मनुष्य जानते हुए भी गलत कार्य करता है, जैसे कोई उसे मजबूर कर रहा हो।
- इसका कारण मनुष्य के भीतर मौजूद वासनाएं और विकार हैं।
English Explanation:
“O Krishna, what is it that compels a person to sin, even against his will, as if forced?”
श्लोक 3.37 – काम और क्रोध सबसे बड़े शत्रु
संस्कृत:
श्रीभगवानुवाच |
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ||
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले: यह काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। यह अत्यंत भोगी और महापापी है, इसे ही इस संसार में अपना शत्रु समझो।
व्याख्या:
- कामना और क्रोध ही मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं।
- ये रजोगुण से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को गलत मार्ग पर ले जाते हैं।
- इन पर नियंत्रण पाकर ही मनुष्य सच्ची शांति प्राप्त कर सकता है।
English Explanation:
“Lust and anger, born of passion, are insatiable and extremely sinful. Know them to be the greatest enemies.”
श्लोक 3.38 – ज्ञान का आवरण
संस्कृत:
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||
अर्थ:
जिस प्रकार आग धुएं से, दर्पण धूल से और गर्भ भ्रूण से ढका होता है, वैसे ही ज्ञान भी कामना से ढका होता है।
व्याख्या:
- इच्छाएं और वासनाएं ज्ञान के प्रकाश को ढँक देती हैं।
- जब तक मनुष्य इच्छाओं से मुक्त नहीं होता, तब तक उसे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
- आत्मसंयम और साधना से इन विकारों को दूर किया जा सकता है।
English Explanation:
“As fire is covered by smoke, a mirror by dust, and a fetus by the womb, so is knowledge covered by desire.”
श्लोक 3.39 – काम और क्रोध ज्ञान को कैसे ढंकते हैं
संस्कृत:
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||
अर्थ:
हे कौन्तेय! यह (काम) ज्ञान को ढक देता है। यह ज्ञानी का भी नित्य शत्रु है, क्योंकि यह अग्नि की तरह कभी संतुष्ट नहीं होता।
व्याख्या:
- काम (इच्छा) और क्रोध (गुस्सा) ज्ञान को ढँक देते हैं, जिससे व्यक्ति सही और गलत का भेद नहीं कर पाता।
- यह इच्छाएं अग्नि के समान हैं, जो कभी भी पूरी तरह शांत नहीं होतीं, बल्कि बढ़ती ही जाती हैं।
- यह न केवल सामान्य व्यक्ति को बल्कि ज्ञानी को भी प्रभावित कर सकती हैं।
- इच्छाओं पर नियंत्रण पाने से ही व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
English Explanation:
“O Kaunteya, this desire, which takes the form of lust, covers knowledge. It is the eternal enemy of the wise, and like fire, it is insatiable.”
श्लोक 3.40 – इच्छाओं का स्थान
संस्कृत:
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ||
अर्थ:
इंद्रियाँ, मन और बुद्धि काम के निवास स्थान माने जाते हैं। यही जीवात्मा के ज्ञान को ढँककर उसे मोहित कर लेते हैं।
व्याख्या:
- काम और क्रोध मुख्य रूप से इंद्रियों, मन और बुद्धि में निवास करते हैं।
- जब मन और बुद्धि विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं, तब वे सही निर्णय लेने में असमर्थ हो जाते हैं।
- आत्मसंयम से ही इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
English Explanation:
“The senses, mind, and intellect are said to be the seat of desire. They delude the soul by covering true knowledge.”
श्लोक 3.41 – इंद्रियों को वश में करना
संस्कृत:
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ||
अर्थ:
इसलिए, हे भरतश्रेष्ठ! पहले इंद्रियों को वश में करके इस पाप स्वरूप कामना का नाश करो, जो ज्ञान और विज्ञान दोनों को नष्ट कर देती है।
व्याख्या:
- आत्मसंयम के बिना आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है।
- कामनाएं ज्ञान और विवेक को नष्ट कर देती हैं, इसलिए सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रण में रखना चाहिए।
- योग, ध्यान और स्वधर्म का पालन करने से इंद्रियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
English Explanation:
“Therefore, O best of the Bharatas, control the senses first and destroy this sinful enemy, which ruins knowledge and wisdom.”
निष्कर्ष
“Bhagavad Gita Chapter 3 Summary in Hindi” हमें सिखाता है कि जीवन में कर्म करना ही हमारा धर्म है। हमें फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यही कर्मयोग का मार्ग हमें सफलता और मोक्ष की ओर ले जाता है।
FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
प्रश्न: कर्मयोग का क्या अर्थ है?
उत्तर: कर्मयोग का अर्थ है बिना किसी स्वार्थ और फल की चिंता किए अपना कर्तव्य निभाना।
प्रश्न: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म के बारे में क्या समझाया?
उत्तर: श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि कर्म से भागना उचित नहीं है, बल्कि निष्काम भाव से कार्य करना ही श्रेष्ठ मार्ग है।
प्रश्न: क्या केवल संन्यास लेना ही मोक्ष का मार्ग है?
उत्तर: नहीं, श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग ही मोक्ष का सच्चा मार्ग है, केवल संन्यास लेना पर्याप्त नहीं है।
प्रश्न: निष्काम कर्म करने से क्या लाभ होता है?
उत्तर: निष्काम कर्म करने से मन शुद्ध होता है, मोह और अहंकार से मुक्ति मिलती है, और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रश्न: क्या हम अपने व्यक्तिगत जीवन में कर्मयोग को अपना सकते हैं?
उत्तर: हाँ, हम अपने कार्यों को पूरी ईमानदारी और निस्वार्थ भाव से करके कर्मयोग का पालन कर सकते हैं।