आत्मा
🌸 राधे राधे! 🌸
आपका स्वागत है इस आध्यात्मिक यात्रा में, जहाँ हम “Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi” के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण के दिव्य उपदेशों को समझेंगे। चौथा अध्याय – ज्ञान कर्म संन्यास योग हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान ही मोक्ष का द्वार है, और ज्ञानयुक्त कर्म ही जीवन का सर्वोत्तम मार्ग है। इस अध्याय में श्री कृष्ण ने अर्जुन को अवतार के रहस्य, यज्ञ के महत्व और निष्काम कर्म के गूढ़ रहस्यों को समझाया है।
क्या आपने कभी सोचा है कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? सही ज्ञान क्या है? और कर्म से मुक्ति कैसे मिल सकती है? अगर हाँ, तो इस अध्याय का ज्ञान आपके जीवन की हर उलझन का समाधान दे सकता है।
🔹 भगवान श्री कृष्ण कहते हैं—
✅ जब-जब अधर्म बढ़ता है, तब मैं धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेता हूँ।
✅ सच्चे ज्ञान से अज्ञान नष्ट हो जाता है, जैसे सूर्य के प्रकाश से अंधकार मिट जाता है।
✅ जो व्यक्ति बिना किसी फल की चिंता किए कर्म करता है, वही जीवन के बंधनों से मुक्त होता है।
तो आइए, “Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi” के माध्यम से इस दिव्य ज्ञान को गहराई से समझें और अपने जीवन को सकारात्मक ऊर्जा, शांति और आत्मज्ञान से भरें!
🙏 राधे राधे! 🙏
Table of Contents
Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi – ईश्वरीय ज्ञान का रहस्य (श्लोक 1-10)
श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह दिव्य ज्ञान उन्होंने पहले सूर्य देव को दिया था।

श्लोक 4.1 – श्रीकृष्ण द्वारा योग का उपदेश
संस्कृत:
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||
अर्थ:
श्रीकृष्ण कहते हैं— यह अविनाशी योग मैंने सूर्य देव (विवस्वान) को बताया, विवस्वान ने इसे मनु को दिया, और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया।
व्याख्या:
- यह ज्ञान एक पवित्र परंपरा के माध्यम से आया है।
- भगवद्गीता का ज्ञान सनातन (शाश्वत) है और इसे युगों से दिव्य आत्माओं को प्रदान किया गया है।
- श्रीकृष्ण अर्जुन को यह योग पुनः प्रदान कर रहे हैं, क्योंकि समय के साथ यह लुप्त हो गया था।
English Explanation:
“I taught this imperishable yoga to the Sun God (Vivasvan), who then passed it to Manu, and Manu taught it to Ikshvaku.”
श्लोक 4.2 – योग का ह्रास
संस्कृत:
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||
अर्थ:
राजर्षियों (राजाओं एवं ऋषियों) ने इस योग को परंपरा से प्राप्त किया, लेकिन काल के प्रभाव से यह नष्ट हो गया।
व्याख्या:
- यह योग पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा, लेकिन समय के प्रभाव से धीरे-धीरे यह भुला दिया गया।
- जब धर्म क्षीण होने लगता है, तब ईश्वर स्वयं इसे पुनः स्थापित करते हैं।
English Explanation:
“This yoga was passed down in disciplic succession to the royal sages. But over time, it was lost, O Parantapa (Arjuna).”
श्लोक 4.3 – अर्जुन को पुनः ज्ञान प्रदान करना
संस्कृत:
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ||
अर्थ:
हे अर्जुन! वही प्राचीन योग आज मैंने तुम्हें बताया है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो। यह एक महान रहस्य है।
व्याख्या:
- श्रीकृष्ण केवल अर्जुन को ही यह रहस्यमयी ज्ञान दे रहे हैं, क्योंकि अर्जुन उनके सखा और भक्त हैं।
- यह ज्ञान केवल उन लोगों को प्राप्त होता है जो ईश्वर में आस्था रखते हैं।
English Explanation:
“I am revealing this ancient yoga to you today because you are my devotee and dear friend. This is a supreme secret.”
श्लोक 4.4 – अर्जुन का प्रश्न
संस्कृत:
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः |
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ||
अर्थ:
हे कृष्ण! आपका जन्म हाल ही में हुआ है, जबकि विवस्वान (सूर्य देव) का जन्म बहुत पहले हुआ था। फिर आपने यह योग उन्हें सबसे पहले कैसे बताया?
व्याख्या:
- अर्जुन आश्चर्यचकित हैं कि श्रीकृष्ण ने सूर्य को यह ज्ञान कैसे दिया होगा, जब वे स्वयं अर्जुन के समकालीन हैं।
- यह प्रश्न अवतार के रहस्य को उजागर करने का अवसर देता है।
English Explanation:
“O Krishna, your birth is recent, while the Sun God (Vivasvan) was born long ago. How am I to understand that you taught this yoga to him?”
श्लोक 4.5 – भगवान का उत्तर (दिव्य जन्म का रहस्य)
संस्कृत:
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||
अर्थ:
हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे कई जन्म हो चुके हैं। मुझे वे सभी ज्ञात हैं, लेकिन तुम्हें उनकी स्मृति नहीं है।
व्याख्या:
- भगवान सभी जन्मों को स्मरण रखते हैं, जबकि जीवात्मा अपने जन्मों को भूल जाता है।
- यह श्रीकृष्ण के दिव्य अस्तित्व को दर्शाता है।
English Explanation:
“O Arjuna, both you and I have had many births. I remember all of them, but you do not.”

श्लोक 4.6 – भगवान का दिव्य स्वरूप
संस्कृत:
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ||
अर्थ:
हालांकि मैं अजन्मा, अविनाशी और समस्त प्राणियों का स्वामी हूँ, फिर भी मैं अपनी योगमाया से प्रकृति के अनुसार अवतरित होता हूँ।
व्याख्या:
- भगवान जन्म और मृत्यु से परे हैं, लेकिन भक्तों के कल्याण के लिए अवतार लेते हैं।
- यह जन्म साधारण मनुष्यों के जन्म से अलग है, क्योंकि यह उनकी इच्छा और योगमाया से होता है।
English Explanation:
“Although I am unborn and imperishable, and the Lord of all beings, I manifest myself through my divine power (yogamaya).”
श्लोक 4.7 – धर्म की स्थापना के लिए अवतार
संस्कृत:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
अर्थ:
हे भारत (अर्जुन)! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब मैं स्वयं अवतरित होता हूँ।
व्याख्या:
- जब संसार में पाप और अधर्म बढ़ता है, तब भगवान स्वयं अवतार लेते हैं।
- यह संसार के संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
English Explanation:
“Whenever there is a decline in righteousness and an increase in unrighteousness, O Bharata, I manifest myself.”
श्लोक 4.8 – अवतार का उद्देश्य
संस्कृत:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
अर्थ:
मैं साधुजनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए युग-युग में प्रकट होता हूँ।
व्याख्या:
- भगवान का अवतार केवल दुष्टों के विनाश के लिए नहीं, बल्कि धर्म की पुनः स्थापना के लिए भी होता है।
- श्रीकृष्ण स्वयं को समय-समय पर पृथ्वी पर प्रकट करते हैं।
English Explanation:
“For the protection of the righteous, the destruction of the wicked, and the establishment of dharma, I manifest myself in every age.”
श्लोक 4.9 – भगवान के जन्म को जानने से मोक्ष
संस्कृत:
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
अर्थ:
जो मेरे दिव्य जन्म और कर्मों को तत्व से जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने के बाद पुनः जन्म नहीं लेता, बल्कि मुझे प्राप्त करता है।
व्याख्या:
- भगवान का जन्म और कर्म दिव्य होते हैं, और जो इन्हें समझ लेता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
- इस ज्ञान से व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो सकता है।
English Explanation:
“One who understands my divine birth and actions in truth, upon leaving the body, does not take birth again but attains me, O Arjuna.”
श्लोक 4.10 – भक्ति से मोक्ष
संस्कृत:
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ||
अर्थ:
जो राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मेरे प्रति समर्पित होते हैं, वे ज्ञान और तपस्या से शुद्ध होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त करते हैं।
English Explanation:
“Free from attachment, fear, and anger, absorbed in me, many have attained my state through knowledge and devotion.”
Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi – अवतार और धर्म की स्थापना (श्लोक 11-20)
भगवान हर युग में धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं और अधर्म का नाश करते हैं।

श्लोक 4.11 – भगवान सभी को उनकी श्रद्धा के अनुसार फल देते हैं
संस्कृत:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||
अर्थ:
जो जिस प्रकार मेरी शरण में आते हैं, मैं उसी अनुसार उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
व्याख्या:
- भगवान किसी के साथ पक्षपात नहीं करते; जो भी उनकी शरण में आता है, उसे उसकी श्रद्धा के अनुसार फल प्राप्त होता है।
- संसार के सभी लोग किसी न किसी रूप में भगवान के मार्ग का ही अनुसरण कर रहे हैं, चाहे वे इसे समझें या न समझें।
English Explanation:
“As people surrender unto me, I reward them accordingly. Everyone follows my path in all respects, O Arjuna.”
श्लोक 4.12 – कर्मफल की शीघ्र प्राप्ति
संस्कृत:
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः |
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ||
अर्थ:
जो लोग कर्मों की सिद्धि चाहते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि मनुष्यलोक में कर्मों का फल शीघ्र प्राप्त होता है।
व्याख्या:
- जो सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति चाहते हैं, वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं।
- इस भौतिक संसार में कर्मों का फल शीघ्र मिलता है, लेकिन यह फल अस्थायी होता है।
English Explanation:
“Those who desire the fruits of their actions worship the celestial gods, for in this human world, success from actions comes quickly.”
श्लोक 4.13 – भगवान सभी वर्णों के रचयिता हैं, लेकिन वे अप्रभावित हैं
संस्कृत:
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||
अर्थ:
मैंने चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के अनुसार की है। यद्यपि मैं इसका कर्ता हूँ, फिर भी मैं अकर्ता और अविनाशी हूँ।
व्याख्या:
- चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) मनुष्य की प्रवृत्ति और कर्मों के आधार पर बनाए गए हैं, जन्म के आधार पर नहीं।
- भगवान सृष्टि के कर्ता होते हुए भी उसके बंधन में नहीं आते।
English Explanation:
“I created the fourfold division of society based on qualities and actions. Though I am its creator, know me to be the non-doer and imperishable.”
श्लोक 4.14 – भगवान कर्मफल से मुक्त हैं
संस्कृत:
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा |
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ||
अर्थ:
मेरे कर्म मुझे बांधते नहीं, और मुझे उनके फलों की कोई इच्छा नहीं है। जो इस सत्य को समझ लेता है, वह भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
व्याख्या:
- भगवान निष्काम कर्म करते हैं, इसलिए वे कर्मफल से बंधे नहीं होते।
- जो मनुष्य भी इस रहस्य को समझकर निस्वार्थ भाव से कर्म करता है, वह भी बंधन से मुक्त हो जाता है।
English Explanation:
“Actions do not bind me, nor do I desire the fruits of actions. One who understands this truth also becomes free from karmic bondage.”
श्लोक 4.15 – पूर्व मुमुक्षुओं द्वारा भी इस ज्ञान को अपनाया गया
संस्कृत:
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः |
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ||
अर्थ:
इस रहस्य को जानकर, पूर्वकाल के मुमुक्षुओं (मोक्ष चाहने वालों) ने भी कर्म किए हैं। इसलिए तुम भी वही कर्म करो, जो उन्होंने किए।
व्याख्या:
- यह ज्ञान नया नहीं है; प्राचीनकाल में भी ज्ञानी जन इसे अपनाकर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।
- अर्जुन को भी निष्काम कर्म करते हुए धर्म का पालन करना चाहिए।
English Explanation:
“Knowing this, the seekers of liberation in ancient times also performed actions. Therefore, you too should perform your duty as they did.”

श्लोक 4.16 – कर्म का गूढ़ रहस्य
संस्कृत:
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः |
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ||
अर्थ:
कौन-सा कर्म है और कौन-सा अकर्म है, इसे लेकर महान ज्ञानी भी भ्रमित होते हैं। इसलिए मैं तुम्हें कर्म का यह रहस्य बताऊँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ (बंधनों) से मुक्त हो जाओगे।
व्याख्या:
- कर्म, अकर्म और विकर्म के बीच का भेद अत्यंत गूढ़ है।
- इसे जानना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
English Explanation:
“Even the wise are confused about what is action and what is inaction. Therefore, I will explain this to you, knowing which you shall be freed from inauspiciousness.”
श्लोक 4.17 – कर्म की गहनता
संस्कृत:
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः |
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ||
अर्थ:
कर्म को समझना आवश्यक है, विकर्म को भी समझना आवश्यक है, और अकर्म को भी समझना आवश्यक है, क्योंकि कर्म का मार्ग अत्यंत गूढ़ है।
व्याख्या:
- कर्म: धर्मानुसार कर्तव्य
- विकर्म: अधर्मजनित कर्म
- अकर्म: निष्काम कर्म
English Explanation:
“One must understand what is action, what is forbidden action, and what is inaction. The ways of karma are indeed profound.”
श्लोक 4.18 – सच्चे ज्ञानी की पहचान
संस्कृत:
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः |
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ||
अर्थ:
जो कर्म में अकर्म (निष्काम कर्म) देखता है और अकर्म में कर्म देखता है, वही बुद्धिमान है और सभी कर्मों को सिद्ध करने वाला है।
व्याख्या:
- जो व्यक्ति कर्म करता हुआ भी उसमें आसक्ति नहीं रखता, वही वास्तविक ज्ञानवान होता है।
- निष्काम कर्म ही वास्तविक अकर्म है।
English Explanation:
“One who sees inaction in action and action in inaction is truly wise among humans and has accomplished all actions.”
श्लोक 4.19 – ज्ञानी व्यक्ति की विशेषता
संस्कृत:
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः |
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ||
अर्थ:
जिस व्यक्ति के सभी कर्म इच्छाओं से रहित होते हैं और जिसका समस्त कर्म ज्ञान की अग्नि में भस्म हो चुका है, उसे ज्ञानी कहते हैं।
English Explanation:
“One whose actions are free from selfish desires and whose deeds are burned by the fire of knowledge is called a wise person by the learned.”
श्लोक 4.20 – त्यागी व्यक्ति का लक्षण
संस्कृत:
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः |
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ||
अर्थ:
जो कर्म के फल में आसक्ति छोड़ चुका है, जो सदा संतुष्ट है और किसी पर निर्भर नहीं है, वह कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता।
English Explanation:
“One who has renounced attachment to the fruits of action, who is ever content and independent, though engaged in action, does nothing at all.”
Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi – कर्म और ज्ञान का संतुलन (श्लोक 21-30)
कर्मयोग और ज्ञानयोग का समन्वय कैसे व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करता है।

श्लोक 4.21 – निस्वार्थ कर्मी की विशेषता
संस्कृत:
निर्गतसङ्गस्य युक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः |
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ||
अर्थ:
जिसका मन आसक्तियों से मुक्त है, जो ज्ञान में स्थित है और जो केवल यज्ञ के लिए कर्म करता है, उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं।
English Explanation:
“One who is unattached, self-disciplined, and established in knowledge, and who performs actions as a sacrifice, all his karma is completely dissolved.”
श्लोक 4.22 – संतुष्ट व्यक्ति का लक्षण
संस्कृत:
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः |
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ||
अर्थ:
जो आसक्ति और अहंकार से मुक्त है, जो संतुष्ट है और जो किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं है, वह कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।
English Explanation:
“One who is unattached to material things, content with whatever comes unasked, free from envy, and engaged in action with an even mind, is not bound by karma.”
श्लोक 4.23 – यज्ञभाव से कर्म करने वाला मुक्त हो जाता है
संस्कृत:
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः |
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ||
अर्थ:
जो आसक्ति से रहित है, मुक्त है और ज्ञान में स्थित है, उसका यज्ञ के लिए किया गया समस्त कर्म समाप्त हो जाता है।
English Explanation:
“One who is detached, liberated, and established in knowledge, performing all actions as a sacrifice, his karma is completely dissolved.”
श्लोक 4.24 – यज्ञभाव में ही ब्रह्म देखना
संस्कृत:
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||
अर्थ:
जिसकी दृष्टि में यज्ञ ब्रह्मस्वरूप है, हव्य (अर्पण की गई वस्तु) ब्रह्मस्वरूप है, अग्नि ब्रह्मस्वरूप है, और हवन करने वाला भी ब्रह्मस्वरूप है, वह कर्मयोगी ब्रह्म को ही प्राप्त करता है।
English Explanation:
“For one established in yoga, everything involved in the sacrifice is Brahman—the offering, the fire, the sacrificer—and such a person ultimately attains Brahman.”
श्लोक 4.25 – विभिन्न प्रकार के यज्ञ
संस्कृत:
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते |
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ||
अर्थ:
कुछ योगी देवताओं की पूजा के रूप में यज्ञ करते हैं, जबकि अन्य योगी ब्रह्म को यज्ञ मानकर आत्मा का समर्पण करते हैं।
English Explanation:
“Some yogis worship the celestial gods in sacrifice, while others offer the self as sacrifice in the fire of Brahman.”

श्लोक 4.26 – इन्द्रियों का यज्ञ
संस्कृत:
श्रोत्रादीनि इन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति |
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ||
अर्थ:
कुछ योगी इन्द्रियों को संयम के अग्नि में हवन करते हैं, और कुछ इन्द्रियों के विषयों (ध्वनि, रूप, गंध आदि) को इन्द्रियों के अग्नि में समर्पित करते हैं।
English Explanation:
“Some offer their hearing and other senses into the fire of self-discipline, while others offer sound and other sense objects into the fire of the senses.”
श्लोक 4.27 – मन और इन्द्रियों का यज्ञ
संस्कृत:
सर्वाणि इन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे |
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ||
अर्थ:
कुछ साधक अपनी समस्त इन्द्रियों और प्राणों के कर्मों को आत्मसंयम रूपी यज्ञ में हवन करते हैं, जो ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होता है।
English Explanation:
“Others sacrifice all their senses and vital energies in the fire of self-restraint, which is kindled by knowledge.”
श्लोक 4.28 – विभिन्न प्रकार के त्यागी
संस्कृत:
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे |
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ||
अर्थ:
कुछ लोग दान (धन) के द्वारा यज्ञ करते हैं, कुछ तपस्या द्वारा, कुछ योगाभ्यास के द्वारा, और कुछ स्वाध्याय (अध्ययन) एवं ज्ञानयज्ञ द्वारा अपने संकल्प को दृढ़ बनाते हैं।
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English Explanation:
“Some perform sacrifices by giving wealth, others by austerities, others by practicing yoga, and yet others by studying and acquiring knowledge.”
श्लोक 4.29 – प्राणायाम के रूप में यज्ञ
संस्कृत:
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे |
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||
अर्थ:
कुछ योगी अपान वायु (श्वास छोड़ने की क्रिया) को प्राण वायु (श्वास लेने की क्रिया) में अर्पण करते हैं, और कुछ प्राण वायु को अपान वायु में अर्पण करते हैं, इस प्रकार वे प्राणायाम के अभ्यास में लगे रहते हैं।
English Explanation:
“Some offer the outgoing breath into the incoming breath, and others offer the incoming breath into the outgoing breath, practicing pranayama to control the vital forces.”
श्लोक 4.30 – आहार संयम के रूप में यज्ञ
संस्कृत:
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति |
सर्वेऽप्येते यज्ञविदः यज्ञक्षपितकल्मषाः ||
अर्थ:
कुछ लोग संयमित आहार द्वारा अपने प्राणों को प्राणों में समर्पित करते हैं। इन सभी यज्ञ को जानने वाले व्यक्ति यज्ञ के द्वारा अपने समस्त पापों को नष्ट कर देते हैं।
English Explanation:
“Others, who regulate their diet, offer their breath in the fire of breath. All these people, knowing the meaning of sacrifice, have their sins destroyed by sacrifice.”
Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi – यज्ञ और त्याग की महिमा (श्लोक 31-42)
जीवन में विभिन्न प्रकार के यज्ञ और उनका महत्व श्रीकृष्ण द्वारा समझाया गया है।

श्लोक 4.31 – यज्ञ करने वालों का फल
संस्कृत:
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् |
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ||
अर्थ:
जो लोग यज्ञ के बाद शेष बचे हुए अमृत (प्रसाद) को ग्रहण करते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। लेकिन जो यज्ञ नहीं करता, वह इस लोक में भी सुख नहीं पाता, तो परलोक में कैसे पाएगा?
English Explanation:
“Those who partake of the remnants of sacrifice attain the eternal Brahman. But those who do not perform sacrifice neither enjoy happiness in this world nor the next.”
श्लोक 4.32 – विभिन्न प्रकार के यज्ञ
संस्कृत:
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे |
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ||
अर्थ:
इस प्रकार अनेक प्रकार के यज्ञ वेदों में वर्णित हैं। इन सभी को कर्मजन्य (कर्म से उत्पन्न) जानकर, तुम इनको समझकर बंधन से मुक्त हो जाओगे।
English Explanation:
“Various kinds of sacrifices have been described in the Vedas. Knowing them as born of action, one shall become free from bondage.”
श्लोक 4.33 – ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है
संस्कृत:
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप |
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ||
अर्थ:
हे अर्जुन! द्रव्य (सामग्री) द्वारा किए गए यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि सभी कर्म ज्ञान में ही पूर्ण होते हैं।
English Explanation:
“O Arjuna, sacrifice performed with knowledge is superior to sacrifice performed with material things. All actions ultimately culminate in knowledge.”
श्लोक 4.34 – गुरु से ज्ञान प्राप्त करना
संस्कृत:
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ||
अर्थ:
उस ज्ञान को तुम श्रद्धा और विनम्रता के साथ गुरु के पास जाकर, उनकी सेवा करके और प्रश्न पूछकर प्राप्त करो। वे तत्वदर्शी ज्ञानी तुम्हें ज्ञान प्रदान करेंगे।
English Explanation:
“Seek this knowledge by humbly approaching a wise teacher, by asking questions, and by serving them. The enlightened ones will instruct you in wisdom.”
श्लोक 4.35 – ज्ञान से मोह का नाश
संस्कृत:
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव |
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ||
अर्थ:
उस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद, हे अर्जुन! तुम फिर कभी मोह में नहीं पड़ोगे और तुम सभी जीवों को अपने और मुझमें देखोगे।
English Explanation:
“Having gained this knowledge, O Arjuna, you will never again fall into delusion. Through it, you will see all beings within yourself and in Me.”

श्लोक 4.36 – ज्ञान से सबसे बड़ा पाप भी नष्ट होता है
संस्कृत:
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः |
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ||
अर्थ:
यदि तुम सबसे बड़े पापी भी हो, तो भी ज्ञानरूपी नौका के द्वारा तुम अपने समस्त पापों से पार हो सकते हो।
English Explanation:
“Even if you are the greatest sinner among sinners, you will cross over all sin by the boat of divine knowledge.”
श्लोक 4.37 – ज्ञान अग्नि से कर्म भस्म हो जाते हैं
संस्कृत:
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा |
अर्थ:
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि समस्त कर्मों को जला डालती है।
English Explanation:
“Just as a blazing fire reduces wood to ashes, so does the fire of knowledge burn all karma to ashes.”
श्लोक 4.38 – ज्ञान सबसे पवित्र है
संस्कृत:
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ||
अर्थ:
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं है। जो योग में सिद्ध होता है, वह कालांतर में अपने भीतर उस ज्ञान को प्राप्त करता है।
English Explanation:
“In this world, there is nothing as purifying as divine knowledge. One who is perfected in yoga realizes it in due course.”
श्लोक 4.39 – श्रद्धा से ज्ञान प्राप्त होता है
संस्कृत:
श्रद्धावान्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ||
अर्थ:
जो श्रद्धावान, संयमशील और ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है, वह ज्ञान प्राप्त करता है और फिर शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त करता है।
English Explanation:
“A person with faith, who is devoted and has control over the senses, attains knowledge. Having obtained it, he quickly attains supreme peace.”
श्लोक 4.40 – संशयवादी नष्ट हो जाता है
संस्कृत:
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति |
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||
अर्थ:
जो अज्ञानी और श्रद्धा से रहित है, तथा जिसका मन सन्देह से भरा है, वह नष्ट हो जाता है। ऐसा व्यक्ति न इस लोक में सुख प्राप्त करता है, न परलोक में।
English Explanation:
“The ignorant, faithless, and doubting soul perishes. Such a person finds neither happiness in this world nor in the next.”

श्लोक 4.41 – कर्मयोगी मुक्त हो जाता है
संस्कृत:
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् |
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ||
अर्थ:
हे अर्जुन! जिसने योग द्वारा अपने कर्मों का त्याग कर दिया है और जिसका संशय ज्ञान से नष्ट हो गया है, उसे कर्म बंधन में नहीं डालते।
English Explanation:
“One who has renounced actions through yoga, and whose doubts are destroyed by knowledge, is not bound by karma, O Arjuna.”
श्लोक 4.42 – संशय को नष्ट कर युद्ध करो
संस्कृत:
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः |
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ||
अर्थ:
इसलिए, हे भारत! अपने हृदय में उत्पन्न अज्ञानजन्य संशय को ज्ञान की तलवार से काटकर, योग में स्थित होकर खड़े हो जाओ और युद्ध करो।
English Explanation:
“Therefore, O Arjuna, slay the doubts born of ignorance with the sword of knowledge. Arise and take to yoga!”
निष्कर्ष
“Bhagavad Gita Adhyay 4 Summary in Hindi” हमें सिखाता है कि जीवन में केवल कर्म करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सही ज्ञान के साथ कर्म करना आवश्यक है। निष्काम कर्म और आत्मज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है।
FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
प्रश्न: श्रीकृष्ण के अनुसार वे कब अवतार लेते हैं?
उत्तर: जब-जब अधर्म बढ़ता है और धर्म की हानि होती है, तब भगवान अवतार लेते हैं।
प्रश्न: ज्ञान और कर्म का क्या संबंध है?
उत्तर: ज्ञान के बिना किया गया कर्म बंधन में डालता है, लेकिन सही ज्ञान के साथ किया गया कर्म मुक्ति देता है।
प्रश्न: निष्काम कर्म से क्या लाभ होता है?
उत्तर: निष्काम कर्म करने से व्यक्ति अहंकार और मोह से मुक्त हो जाता है और शांति प्राप्त करता है।
प्रश्न: श्रीकृष्ण ने यह ज्ञान सबसे पहले किसे दिया था?
उत्तर: भगवान श्रीकृष्ण ने यह ज्ञान सबसे पहले सूर्य देव को दिया था, फिर यह ऋषियों और महापुरुषों तक पहुँचा।
प्रश्न: इस अध्याय से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर: हमें अपने जीवन में सही ज्ञान के साथ निष्काम कर्म करना चाहिए और मोह-अहंकार से मुक्त रहना चाहिए।