🌸 राधे राधे! 🌸
आपका स्वागत है इस आध्यात्मिक और प्रेरणादायक ब्लॉग में, जहाँ हम “Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi” के माध्यम से श्री कृष्ण के दिव्य ज्ञान को समझेंगे। भगवद गीता का दूसरा अध्याय (सांख्य योग) सबसे महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है, जिसमें श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन, कर्तव्य, आत्मा, मृत्यु और मोक्ष का गूढ़ रहस्य समझाया है। यह अध्याय हमें सही और गलत के बीच निर्णय लेने, कर्तव्य के पथ पर डटे रहने और सच्चे ज्ञान की ओर बढ़ने की सीख देता है।
क्या आपने कभी जीवन में संशय, भय या असमंजस का अनुभव किया है? क्या कभी ऐसा लगा है कि आप अपने निर्णयों को लेकर भ्रमित हैं? अगर हाँ, तो भगवद गीता का यह अध्याय आपको हर उलझन से बाहर निकलने का मार्ग दिखाएगा।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि—
✅ आत्मा अमर है, शरीर नश्वर
✅ कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो
✅ सच्चा योगी वही है जो मोह-माया से परे होकर निष्काम कर्म करता है
इस अध्याय में श्री कृष्ण ने कर्मयोग और ज्ञानयोग की अद्भुत व्याख्या की है, जो आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है। तो आइए, “Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi“ के माध्यम से इस दिव्य ज्ञान को समझें और अपने जीवन को शांति, आत्म-ज्ञान और सकारात्मक ऊर्जा से भरें!
🙏 राधे राधे! 🙏
Table of Contents
अर्जुन का मोह और श्रीकृष्ण की शिक्षाएं (श्लोक 1-10) | Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
इस खंड में अर्जुन के संशय और मोह का वर्णन होगा, जिसमें वह युद्ध से पीछे हटने की इच्छा व्यक्त करता है।
इन श्लोकों में अर्जुन के मानसिक संघर्ष को दर्शाया गया है और श्रीकृष्ण उसे कर्तव्यपथ पर लाने का प्रयास कर रहे हैं। यही गीता का मुख्य सन्देश है – कर्तव्य और धर्म का पालन!

श्लोक 2.1
संस्कृत:
सञ्जय उवाच |
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ||
अर्थ:
संजय ने कहा: उस समय जब अर्जुन करुणा से भरकर अत्यधिक व्याकुल था, उसके नेत्र आँसुओं से भरे थे और वह शोक में डूबा हुआ था। तब श्रीकृष्ण (मधुसूदन) ने उससे यह वचन कहा।
व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन की मनोदशा को दर्शाता है। युद्ध के मैदान में खड़े होकर वह मोह और करुणा से अभिभूत था। वह अपने बंधुओं और गुरुओं के साथ युद्ध करने में असमर्थ महसूस कर रहा था। इस स्थिति में श्रीकृष्ण उसे गीता का उपदेश देने वाले हैं।
English Explanation:
This verse describes Arjuna’s emotional turmoil. He is overwhelmed with compassion and sorrow, unable to fight. Seeing his condition, Krishna (Madhusudana) prepares to counsel him.
श्लोक 2.2
संस्कृत:
श्रीभगवानुवाच |
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ||
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले: हे अर्जुन! इस कठिन समय में यह मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ? यह श्रेष्ठ पुरुषों के योग्य नहीं है, न ही इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और न ही यश मिलता है।
व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि उसका यह मोह और कर्तव्य से विचलन क्षत्रिय धर्म के अनुकूल नहीं है। यह कायरता और दुर्बलता का प्रतीक है, जो महान योद्धाओं के लिए शोभनीय नहीं है।
English Explanation:
Krishna questions Arjuna’s weakness, stating that it is unworthy of noble warriors. Such despair does not lead to heaven or honor, but only disgrace.
श्लोक 2.3
संस्कृत:
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ||
अर्थ:
हे अर्जुन! कायरता को मत अपनाओ, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ, हे परंतप!
व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को प्रेरित कर रहे हैं कि वह हृदय की इस दुर्बलता से बाहर निकले और अपने धर्म का पालन करे। युद्ध से भागना एक योद्धा के लिए शोभनीय नहीं है।
English Explanation:
Krishna tells Arjuna to abandon weakness and rise as a warrior. Escaping from duty is not befitting a noble fighter.
श्लोक 2.4
संस्कृत:
अर्जुन उवाच |
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ||
अर्थ:
अर्जुन बोले: हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में भीष्म पितामह और गुरु द्रोण पर बाण कैसे चला सकता हूँ? ये तो मेरे लिए पूजनीय हैं, हे अरिसूदन!
व्याख्या:
अर्जुन धर्मसंकट में है। वह सोचता है कि अपने पूज्यजनों पर बाण चलाना अधर्म है और यह उसका सबसे बड़ा नैतिक संघर्ष बन जाता है।
English Explanation:
Arjuna expresses his moral dilemma about fighting against his revered elders, feeling conflicted about his duty.
श्लोक 2.5
संस्कृत:
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ||
अर्थ:
ऐसे महानुभाव गुरुजनों को मारकर जीने से तो इस संसार में भिक्षा मांगकर जीना भी श्रेष्ठ है। यदि हम उन्हें मारकर सांसारिक सुख भोगेंगे, तो वे रुधिर से सने होंगे।
व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन के गहरे संघर्ष को दर्शाता है। वह सोचता है कि यदि उसे अपने ही गुरुओं को मारकर राज करना पड़े, तो ऐसा राज्य स्वीकार्य नहीं होगा।
English Explanation:
Arjuna feels that living by begging is better than ruling after killing his respected elders, as such a victory would be tainted with their blood.
श्लोक 2.6
संस्कृत:
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः |
यानेव हत्वा न जिजीविषामः
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ||
अर्थ:
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है – हम जीतेंगे या वे हमें जीत लेंगे। जिनके बिना हम जीना नहीं चाहते, वे ही हमारे सामने युद्ध के लिए खड़े हैं।
व्याख्या:
अर्जुन असमंजस में है। उसे यह भी नहीं पता कि युद्ध करना सही होगा या गलत।
English Explanation:
Arjuna is unsure whether victory or defeat would be better, as both outcomes involve immense suffering.
श्लोक 2.7
संस्कृत:
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||
अर्थ:
मेरी स्वाभाविक बुद्धि करुणा के कारण दुर्बल हो गई है, और मैं धर्म के विषय में भ्रमित हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ, कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।
व्याख्या:
यहाँ अर्जुन पूरी तरह से श्रीकृष्ण की शरण में आ जाता है और उनसे मार्गदर्शन मांगता है।
English Explanation:
Arjuna surrenders to Krishna as his disciple, asking for guidance in his confusion.
श्लोक 2.8
संस्कृत:
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ||
अर्थ:
मैं इस शोक को दूर करने का कोई उपाय नहीं देखता, भले ही मुझे बिना शत्रु वाला समृद्ध राज्य या देवताओं का साम्राज्य ही क्यों न मिल जाए।
व्याख्या:
अर्जुन कहता है कि कोई भी सांसारिक लाभ उसे इस दुःख से मुक्त नहीं कर सकता।
English Explanation:
Arjuna feels that no earthly riches or power can remove his sorrow and inner conflict.
श्लोक 2.9
सञ्जय उवाच |
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ||
अर्थ:
संजय ने कहा: इस प्रकार गुडाकेश (अर्जुन) ने हृषीकेश (श्रीकृष्ण) से कहा कि “मैं युद्ध नहीं करूंगा” और यह कहकर वह मौन हो गया।
व्याख्या:
इस श्लोक में अर्जुन की मनःस्थिति को दर्शाया गया है। वह मोह और करुणा के कारण अपने कर्तव्य से विमुख हो गया और उसने स्पष्ट रूप से युद्ध न करने का निर्णय लिया। यह अर्जुन का अंतिम कथन था, इसके बाद उसने श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की प्रतीक्षा की।
English Explanation:
Sanjaya describes Arjuna’s state of mind, saying that after expressing his unwillingness to fight, Arjuna fell silent, awaiting Krishna’s response.
श्लोक 2.10
संस्कृत:
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||
अर्थ:
हे भारत (धृतराष्ट्र)! उस समय हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने सेना के दोनों पक्षों के बीच खड़े होकर शोकाकुल अर्जुन से मुस्कुराते हुए ये वचन कहे।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा को समझते हैं और वे मुस्कुराते हुए उसे उत्तर देने के लिए तैयार होते हैं। यह मुस्कान महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दर्शाती है कि वे अर्जुन के मोह को एक क्षणिक भ्रम मानते हैं और उसे सत्य की ओर ले जाने वाले हैं।
English Explanation:
Krishna, standing between the two armies, smiles before addressing Arjuna. His smile signifies that he understands Arjuna’s confusion and is about to guide him toward wisdom and duty.
अमृततत्व का ज्ञान: आत्मा अजर-अमर है (श्लोक 11-20) | Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की नश्वरता और शरीर की मृत्यु का महत्व समझाते हैं। इन श्लोकों में श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता को स्पष्ट कर रहे हैं। वे अर्जुन को सिखाते हैं कि आत्मा को न कोई मार सकता है, न यह कभी मरती है। इसलिए, उसे अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए और धर्म के मार्ग पर अडिग रहना चाहिए।

श्लोक 2.11
संस्कृत:
श्रीभगवानुवाच |
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||
अर्थ:
श्रीभगवान बोले: जिनके लिए शोक करना उचित नहीं है, उनके लिए तुम शोक कर रहे हो, और फिर भी तुम ज्ञान की बातें कर रहे हो। जो ज्ञानी व्यक्ति होते हैं, वे न तो मृत व्यक्ति के लिए शोक करते हैं और न ही जीवित के लिए।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को समझाते हैं कि वह अज्ञानता के कारण मोह में पड़ गया है। वह पांडित्यपूर्ण बातें कर रहा है, लेकिन वास्तव में आत्मा के सत्य को नहीं समझ रहा। ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि आत्मा अमर है, इसलिए वह किसी की मृत्यु या जीवन पर शोक नहीं करता।
English Explanation:
Krishna tells Arjuna that he is grieving unnecessarily while speaking as if he is wise. A truly wise person does not mourn for the living or the dead, as the soul is eternal.
श्लोक 2.12
संस्कृत:
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||
अर्थ:
न तो मैं कभी नहीं था, न तुम थे, और न ही ये राजा कभी नहीं थे, और न ही हम सब आगे कभी नहीं रहेंगे – ऐसा भी नहीं है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ आत्मा की अनश्वरता को समझा रहे हैं। आत्मा न कभी पैदा होती है, न कभी नष्ट होती है। हम सभी पहले भी थे, अभी भी हैं और आगे भी रहेंगे, बस शरीर बदलते जाते हैं।
English Explanation:
Krishna explains that neither he, Arjuna, nor the assembled kings have ever ceased to exist, nor will they ever cease to exist in the future. The soul is eternal
श्लोक 2.13
संस्कृत:
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||
अर्थ:
जिस प्रकार इस शरीर में जीवात्मा बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था को प्राप्त करता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद वह दूसरे शरीर को प्राप्त करता है। इस सत्य को जानकर धैर्यवान व्यक्ति मोहित नहीं होता।
व्याख्या:
यह श्लोक पुनर्जन्म और आत्मा के निरंतर अस्तित्व को समझाता है। शरीर बदलते रहते हैं, लेकिन आत्मा वही रहती है। जैसे शरीर में अवस्थाएँ बदलती हैं, वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर धारण करती है।
English Explanation:
Krishna explains that just as the body passes through childhood, youth, and old age, similarly, the soul transitions into another body after death. The wise are not deluded by this.
श्लोक 2.14
संस्कृत:
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||
अर्थ:
हे कौन्तेय (अर्जुन)! गर्मी और सर्दी, सुख और दुःख इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं। वे आते और जाते रहते हैं, इसलिए उन्हें सहन करो, क्योंकि वे नश्वर हैं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखा रहे हैं कि सुख और दुःख दोनों ही क्षणिक हैं। वे शरीर और इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं, लेकिन आत्मा इनसे प्रभावित नहीं होती। एक सच्चे योगी को इन्हें सहन करना सीखना चाहिए।
English Explanation:
Krishna teaches Arjuna that sensory experiences like heat and cold, pleasure and pain are temporary. A wise person learns to endure them without being disturbed.
श्लोक 2.15
संस्कृत:
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||
अर्थ:
हे पुरुषों में श्रेष्ठ! जो व्यक्ति सुख-दुःख में समान रहता है और जिसे ये व्यथित नहीं करते, वही अमृतत्व (मोक्ष) के योग्य होता है।
व्याख्या:
जो व्यक्ति सुख और दुःख को समान भाव से देखता है, वही आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। सांसारिक परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन जो उनके प्रभाव से विचलित नहीं होता, वही परम सत्य को प्राप्त करता है।
English Explanation:
Krishna states that one who remains undisturbed by pleasure and pain is fit for liberation. Such a person transcends worldly suffering and attains the eternal truth.
श्लोक 2.16
संस्कृत:
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||
अर्थ:
असत (जो वास्तविक नहीं है) का कोई अस्तित्व नहीं होता और सत (जो वास्तविक है) का कभी अभाव नहीं होता। इन दोनों का अंतर तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने देखा है।
व्याख्या:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि जो चीज़ अस्थायी है (जैसे शरीर), वह नष्ट हो जाएगी, और जो शाश्वत है (जैसे आत्मा), वह हमेशा रहेगा। इसलिए, हमें अस्थायी चीज़ों से अत्यधिक जुड़ाव नहीं रखना चाहिए और आत्मा के सत्य को पहचानना चाहिए।
English Explanation:
Krishna explains that the unreal (material world) has no true existence, while the real (soul) never ceases to exist. Wise men understand this distinction.
श्लोक 2.17
संस्कृत:
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||
अर्थ:
जिससे यह पूरा संसार व्याप्त है, उस आत्मा को अविनाशी समझो। इस अविनाशी आत्मा का विनाश कोई नहीं कर सकता।
व्याख्या:
यहाँ श्रीकृष्ण आत्मा की अनश्वरता को बताते हैं। आत्मा सर्वव्यापी और अविनाशी है। यह शरीर को छोड़ सकती है, लेकिन इसका कभी अंत नहीं होता।
English Explanation:
Krishna says that the soul, which pervades the entire universe, is indestructible and cannot be destroyed by anyone.
श्लोक 2.18
संस्कृत:
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः |
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||
अर्थ:
ये शरीर नश्वर हैं, लेकिन इनमें स्थित आत्मा नित्य, अविनाशी और असीमित है। इसलिए, हे भारत (अर्जुन), युद्ध करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखा रहे हैं कि शरीर क्षणिक है, लेकिन आत्मा शाश्वत है। इसलिए, उसे अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होना चाहिए और धर्मयुद्ध में आगे बढ़ना चाहिए।
English Explanation:
Krishna tells Arjuna that bodies are perishable, but the soul is eternal. Hence, he should not hesitate to fight for righteousness.
श्लोक 2.19
संस्कृत:
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् |
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||
अर्थ:
जो यह सोचता है कि आत्मा मार सकती है या मर सकती है, वह अज्ञानता में है। आत्मा न किसी को मारती है, न ही मरती है।
व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की अजेयता को स्पष्ट करता है। आत्मा अमर और अविनाशी है, इसलिए हत्या या मृत्यु केवल शरीर के स्तर पर होती है, आत्मा इससे अछूती रहती है।
English Explanation:
Krishna states that the soul neither kills nor can be killed. Those who think otherwise are ignorant of the soul’s true nature.
श्लोक 2.20
संस्कृत:
न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||
अर्थ:
आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है। न यह पहले उत्पन्न हुई थी, न आगे कभी उत्पन्न होगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण आत्मा की अनश्वरता और अनंतता को पुनः स्पष्ट कर रहे हैं। आत्मा का कोई जन्म नहीं होता और यह कभी समाप्त नहीं होती। मृत्यु केवल शरीर का होता है, आत्मा सदैव बनी रहती है।
English Explanation:
Krishna emphasizes that the soul is unborn, eternal, and never dies. Even when the body is destroyed, the soul remains unchanged.
कर्तव्य और निष्काम कर्म योग (श्लोक 21-30) | Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने धर्म और कर्तव्य के प्रति जागरूक करते हैं। इन श्लोकों में श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की नित्यता और शरीर की नश्वरता का ज्ञान दे रहे हैं। वे समझाते हैं कि जीवन और मृत्यु एक सतत चक्र का हिस्सा हैं। जो जन्मा है, वह मरेगा और जो मरा है, वह पुनः जन्म लेगा। इस सत्य को समझकर मनुष्य को मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए।

श्लोक 2.21
संस्कृत:
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् |
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||
अर्थ:
जो व्यक्ति आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अव्यय (न बदलने वाला) जानता है, वह किसी की हत्या कैसे कर सकता है या किसी को मरता हुआ कैसे देख सकता है?
व्याख्या:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जो आत्मा को जानता है, वह हिंसा के बारे में सोच ही नहीं सकता क्योंकि आत्मा को न मारा जा सकता है और न ही यह किसी को मार सकती है। यह केवल शरीर का परिवर्तन है, आत्मा अमर है।
English Explanation:
Krishna explains that one who understands the soul to be indestructible, eternal, unborn, and unchanging cannot consider killing or being killed.
श्लोक 2.22
संस्कृत:
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||
अर्थ:
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण आत्मा के पुनर्जन्म की अवधारणा को सरल भाषा में समझाते हैं। शरीर वस्त्र की तरह नष्ट होता है, लेकिन आत्मा सदैव बनी रहती है और नए शरीर में प्रवेश कर पुनः जन्म लेती है।
English Explanation:
Krishna uses an analogy to explain reincarnation: Just as a person discards old clothes and wears new ones, the soul leaves an old body and takes on a new one.
श्लोक 2.23
संस्कृत:
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||
अर्थ:
इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल इसे गीला कर सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता को दर्शाते हैं। आत्मा किसी भी भौतिक चीज़ से प्रभावित नहीं होती, चाहे वह शस्त्र, अग्नि, जल, या वायु हो। यह शाश्वत और अजेय है।
English Explanation:
Krishna describes the soul as impervious to weapons, fire, water, or wind. It cannot be cut, burned, wet, or dried, emphasizing its indestructibility.
श्लोक 2.24
संस्कृत:
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च |
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ||
अर्थ:
यह आत्मा न कट सकती है, न जल सकती है, न गीली हो सकती है, न सूख सकती है। यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन (शाश्वत) है।
व्याख्या:
यहाँ आत्मा की अपरिवर्तनीयता का वर्णन किया गया है। यह नष्ट नहीं होती, कहीं भी जा सकती है, स्थिर रहती है और हमेशा विद्यमान रहती है।
English Explanation:
The soul is uncuttable, unburnable, unwettable, and undryable. It is eternal, omnipresent, unchangeable, immovable, and everlasting.
श्लोक 2.25
संस्कृत:
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||
अर्थ:
यह आत्मा अव्यक्त (इन्द्रियों से न दिखाई देने वाली), अचिन्त्य (सोच से परे), और अविकार (परिवर्तन रहित) कही जाती है। इसलिए, इसे जानकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि आत्मा को देखा या समझा नहीं जा सकता, यह इंद्रियों से परे है। इसे किसी भी भौतिक साधन से बदला नहीं जा सकता। इसलिए, अर्जुन को शोक नहीं करना चाहिए।
English Explanation:
Krishna explains that the soul is invisible, inconceivable, and unchangeable. Knowing this, one should not grieve over the loss of the physical body.
श्लोक 2.26
संस्कृत:
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |
तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि ||
अर्थ:
यदि तुम इस आत्मा को नित्य जन्म लेने वाला या नित्य मरने वाला मानते हो, तब भी हे महाबाहु (अर्जुन), तुम्हें इसके लिए शोक नहीं करना चाहिए।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण तर्क देते हैं कि चाहे कोई आत्मा को स्थायी रूप से जन्म लेने वाला या मरने वाला मानता हो, फिर भी शोक करना व्यर्थ है। मृत्यु एक अनिवार्य सत्य है, जिस पर दु:खी होना उचित नहीं।
English Explanation:
Krishna argues that even if one believes the soul is constantly born and dying, there is still no reason to grieve, as it is a natural process.
श्लोक 2.27
संस्कृत:
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||
अर्थ:
जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरा है उसका पुनर्जन्म निश्चित है। इसलिए, जिसे बदला नहीं जा सकता, उस पर शोक मत करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में संसार के अपरिहार्य नियम को बताते हैं। जीवन और मृत्यु एक चक्र की तरह हैं। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होगा ही, इसलिए इस सत्य पर शोक करना व्यर्थ है।
English Explanation:
Krishna explains that birth inevitably leads to death, and death leads to rebirth. Since this cycle is unavoidable, there is no reason to grieve.
श्लोक 2.28
संस्कृत:
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ||
अर्थ:
सभी जीव अव्यक्त (अदृश्य) रूप से उत्पन्न होते हैं, जीवन के मध्य में प्रकट होते हैं और अंत में पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। तो इस पर शोक करने का क्या कारण है?
व्याख्या:
श्रीकृष्ण सृष्टि के स्वाभाविक क्रम की व्याख्या कर रहे हैं। हम जन्म से पहले अदृश्य होते हैं, जीवन में दिखाई देते हैं और मृत्यु के बाद फिर अदृश्य हो जाते हैं। यह प्रक्रिया स्वाभाविक है, इसलिए शोक करना व्यर्थ है।
English Explanation:
Krishna describes the natural cycle of existence: beings are unseen before birth, visible in life, and unseen again after death. Since this is natural, there is no reason to grieve.
श्लोक 2.28
संस्कृत:
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनं
आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः |
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||
अर्थ:
कोई इसे आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह वर्णन करता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, और सुनने के बाद भी कोई इसे नहीं समझ पाता।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण आत्मा की महानता को दर्शाते हैं। आत्मा इतनी रहस्यमयी और अद्भुत है कि कुछ लोग इसे देखकर चकित होते हैं, कुछ इसे लेकर चर्चा करते हैं, और कुछ इसे सुनकर भी नहीं समझ पाते।
English Explanation:
Krishna states that the soul is so mysterious that some marvel at it, some describe it as wondrous, and others hear about it but still fail to understand it.
श्लोक 2.30
संस्कृत:
देही नित्यं अवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ||
अर्थ:
हे भारत, यह आत्मा प्रत्येक जीव के शरीर में नित्य और अवध्य (अविनाशी) है। इसलिए, किसी भी जीव के लिए शोक मत करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि आत्मा नष्ट नहीं होती, केवल शरीर बदलता है। इसलिए किसी की मृत्यु पर शोक करना अज्ञानता है।
English Explanation:
Krishna tells Arjuna that the soul is eternal and indestructible within every being. Therefore, one should not grieve for any living being.
कर्मयोग: कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो (श्लोक 31-40) | Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
इस भाग में निष्काम कर्म योग की महिमा और उसके लाभ बताए गए हैं।
इन श्लोकों में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। वे बताते हैं कि यश, अपमान और हानि-लाभ से ऊपर उठकर निष्काम कर्म करने से व्यक्ति धर्म और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

श्लोक 2.31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ||
अर्थ:
अपने स्वधर्म को देखते हुए तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिए, क्योंकि एक क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर कोई और कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके क्षत्रिय धर्म की याद दिलाते हैं। एक योद्धा का कर्तव्य है कि वह धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करे। यदि वह अपने धर्म से विमुख होता है, तो यह उसकी आत्मा और समाज दोनों के लिए हानिकारक होगा।
English Explanation:
Krishna reminds Arjuna that as a Kshatriya, it is his duty to fight a righteous war. There is no greater responsibility for a warrior than to protect righteousness.
श्लोक 2.32
संस्कृत:
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् |
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ||
अर्थ:
ऐसा युद्ध, जो स्वयं प्राप्त होता है और स्वर्ग के द्वार खोलता है, केवल भाग्यशाली क्षत्रियों को प्राप्त होता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि यह युद्ध केवल व्यक्तिगत जीत या हार के लिए नहीं है, बल्कि धर्म की स्थापना के लिए है। ऐसा धर्मयुद्ध वीर योद्धाओं के लिए एक महान अवसर होता है, जो उन्हें स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग देता है।
English Explanation:
Krishna tells Arjuna that such a war, which upholds righteousness and opens the gates of heaven, is a rare opportunity granted only to fortunate warriors.
श्लोक 2.33
संस्कृत:
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि |
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ||
अर्थ:
यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध से विमुख हो जाओगे, तो तुम अपने स्वधर्म और यश को खो दोगे तथा पाप के भागी बनोगे।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि युद्ध से पीछे हटना केवल कायरता नहीं है, बल्कि यह एक धर्मच्युत कर्म भी होगा, जिससे अर्जुन को समाज में अपयश और आत्मग्लानि का सामना करना पड़ेगा।
English Explanation:
Krishna warns Arjuna that if he refuses to fight this righteous war, he will abandon his duty and honor, thus incurring sin.
श्लोक 2.34
संस्कृत:
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् |
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ||
अर्थ:
लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक होता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि यदि वह युद्ध से पीछे हटते हैं, तो लोग उनकी कायरता की चर्चा करेंगे। सम्मानित योद्धाओं के लिए अपमान और बदनामी मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक होती है।
English Explanation:
Krishna emphasizes that dishonor is worse than death for a person of high esteem, as people will speak of his cowardice forever.
श्लोक 2.35
संस्कृत:
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः |
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ||
अर्थ:
महान योद्धा सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्ध से हट गए, और जिनका तुम सम्मान करते हो, उनकी नजरों में तुम्हारी प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि यदि वह युद्ध से पीछे हटते हैं, तो योद्धा समाज में उनकी प्रतिष्ठा नष्ट हो जाएगी। जिन लोगों ने उन्हें वीर समझा है, वे उन्हें कायर मानेंगे।
English Explanation:
Krishna warns Arjuna that if he withdraws from battle, great warriors will think he fled out of fear, leading to the loss of his honor and respect.
श्लोक 2.36
संस्कृत:
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः |
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ||
अर्थ:
तेरे शत्रु तेरी निंदा करेंगे और तेरे सामर्थ्य पर सवाल उठाएंगे। इससे अधिक दुखदायी बात और क्या हो सकती है?
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि यदि वह युद्ध से पीछे हटते हैं, तो उनके शत्रु उन पर तरह-तरह की बातें बनाएंगे और उनकी कायरता की चर्चा करेंगे। किसी भी सम्मानित योद्धा के लिए यह सबसे अधिक पीड़ा देने वाली बात होगी।
English Explanation:
Krishna tells Arjuna that if he withdraws from battle, his enemies will mock him and question his abilities, which is more painful than death for a warrior.
श्लोक 2.37
संस्कृत:
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ||
अर्थ:
यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो, तो स्वर्ग प्राप्त करोगे, और यदि जीतते हो, तो पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इसलिए, हे अर्जुन! दृढ़ निश्चय करके युद्ध करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को बताते हैं कि युद्ध का परिणाम चाहे जो भी हो, वह लाभदायक ही होगा। यदि अर्जुन वीरगति को प्राप्त होते हैं, तो उन्हें स्वर्ग मिलेगा, और यदि वे विजयी होते हैं, तो उन्हें राज्य मिलेगा। इसलिए उन्हें अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए।
English Explanation:
Krishna encourages Arjuna to fight with determination, assuring him that whether he dies and attains heaven or wins and enjoys the kingdom, he will gain either way.
श्लोक 2.38
संस्कृत:
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||
अर्थ:
सुख-दुःख, लाभ-हानि और जीत-हार को समान मानकर युद्ध करो। ऐसा करने से तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति परिणाम की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य को पूरा करता है, तो वह पाप से मुक्त रहता है।
English Explanation:
Krishna advises Arjuna to perform his duty without attachment to success or failure, pleasure or pain. By doing so, he will not incur sin.
सांख्ययोग का ज्ञान
श्लोक 2.39
संस्कृत:
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु |
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ||
अर्थ:
हे पार्थ! अब तक मैंने तुम्हें सांख्य योग की बुद्धि से समझाया, अब इसे योग की दृष्टि से सुनो, जिससे तुम कर्म के बंधन से मुक्त हो सकते हो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि उन्होंने अब तक ज्ञानयोग की दृष्टि से अर्जुन को समझाया, लेकिन अब वे कर्मयोग की शिक्षा देंगे, जिससे व्यक्ति जीवन के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
English Explanation:
Krishna transitions from Sankhya (knowledge-based approach) to Karma Yoga (path of selfless action), teaching Arjuna how to free himself from the bondage of actions.
श्लोक 2.40
संस्कृत:
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||
अर्थ:
इस योग में किया गया कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता, और इसमें कोई हानि नहीं होती। इस धर्म का थोड़ा-सा भी पालन मनुष्य को बड़े भय से बचा सकता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि निष्काम कर्म योग में किया गया कोई भी प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता। थोड़े से भी सत्कर्म से मनुष्य जीवन के सबसे बड़े संकटों से बच सकता है।
English Explanation:
Krishna assures Arjuna that even a small effort in selfless action (Karma Yoga) is never wasted and can protect one from great dangers in life.
बुद्धियोग और आत्मसंयम | संकल्प, मोह और ज्ञान की महत्ता(श्लोक 41-50) Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
बुद्धियोग के माध्यम से व्यक्ति कैसे उच्चतम स्थिति प्राप्त कर सकता है, इसकी व्याख्या होगी। यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, न कि उसके परिणाम पर।निष्काम कर्मयोग के इस सिद्धांत को अपनाने से जीवन में शांति, संतोष और सफलता प्राप्त होती है।

श्लोक 2.41
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ||
अर्थ:
हे कुरुनंदन! इस योग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, जबकि अस्थिर मन वाले लोगों की बुद्धि अनेक शाखाओं में बंट जाती है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को बताते हैं कि जो व्यक्ति अपने लक्ष्य को लेकर दृढ़ निश्चय रखते हैं, उनकी बुद्धि एकनिष्ठ होती है। लेकिन जो लोग अस्थिर और अनिश्चित होते हैं, वे कई दिशाओं में भटक जाते हैं और सफलता प्राप्त नहीं कर पाते।
English Explanation:
Krishna teaches that a resolute mind is focused on a singular goal, while those who lack determination are distracted by countless desires and doubts.
श्लोक 2.42-2.43
संस्कृत:
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः |
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ||
कामात्मानः स्वर्गपराः जन्मकर्मफलप्रदाम् |
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ||
अर्थ:
जो अल्पबुद्धि वाले लोग हैं, वे वेदों के सुंदर शब्दों में उलझे रहते हैं और मानते हैं कि यही सब कुछ है। वे केवल स्वर्ग और भोग की कामना में फंसे रहते हैं और जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।
व्याख्या:
यहाँ श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि कुछ लोग वेदों के कर्मकांडों में ही उलझे रहते हैं और उन्हें परम सत्य नहीं समझ आता। वे सिर्फ स्वर्ग और सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं, जिससे वे आत्मज्ञान की राह से भटक जाते हैं।
English Explanation:
Krishna warns against being misled by flowery words that glorify rituals for material gains, as they keep one entangled in the cycle of birth and death.
श्लोक 2.44
संस्कृत:
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||
अर्थ:
जो लोग भोग और ऐश्वर्य में लिप्त रहते हैं, उनकी बुद्धि इन मोहों के कारण विचलित हो जाती है और वे स्थिर चित्त से आत्मा का ध्यान नहीं कर पाते।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो लोग सांसारिक सुखों और भोग में अत्यधिक आसक्त होते हैं, वे आध्यात्मिक मार्ग से दूर चले जाते हैं। उनकी बुद्धि एकाग्र नहीं होती और वे उच्चतर लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते।
English Explanation:
Krishna explains that those obsessed with luxury and pleasure lose their ability to focus on self-realization and spiritual growth.
श्लोक 2.45
संस्कृत:
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||
अर्थ:
वेद तीन गुणों (सत, रज, तम) से प्रभावित हैं, लेकिन हे अर्जुन! तुम इनसे परे रहो, द्वंद्वों से मुक्त होकर सत्त्वगुण में स्थित रहो और सांसारिक सुखों की चिंता मत करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि उन्हें सांसारिक द्वंद्वों (जैसे सुख-दुःख, लाभ-हानि) से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थिर रहना चाहिए। वेदों में कर्मकांड और सांसारिक सुखों का वर्णन तो है, लेकिन परम सत्य इससे भी परे है।
English Explanation:
Krishna advises Arjuna to transcend the three gunas (modes of nature) and remain steady in his true self, free from materialistic concerns.
श्लोक 2.46
संस्कृत:
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके |
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ||
अर्थ:
जिस प्रकार एक विशाल जलाशय प्राप्त हो जाने पर छोटे-छोटे कुओं की आवश्यकता नहीं रहती, उसी प्रकार जो व्यक्ति ब्रह्मज्ञान को जान लेता है, उसे वेदों के कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं रहती।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जैसे एक विशाल जलस्रोत की प्राप्ति होने पर छोटे जलस्रोतों की आवश्यकता नहीं रह जाती, वैसे ही जो व्यक्ति ब्रह्म को जान लेता है, उसे वेदों के सांसारिक कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं रहती।
English Explanation:
Krishna compares self-realization to a vast reservoir of water, making smaller sources unnecessary, just as one who attains spiritual wisdom surpasses ritualistic practices.
श्लोक 2.47
संस्कृत:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||
अर्थ:
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, लेकिन कर्म के फल में कभी नहीं। इसलिए, तुम कर्मफल की इच्छा में लिप्त मत हो और न ही अकर्मण्यता (कर्म न करने) में आसक्त हो।
व्याख्या:
यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि मनुष्य को केवल अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, लेकिन फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
- यह सिद्धांत निष्काम कर्मयोग की नींव है, जिसका अर्थ है स्वार्थ रहित कर्म करना।
- कर्म करते समय हमें फल की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हाथ में नहीं है।
- साथ ही, कर्म न करने की प्रवृत्ति भी नहीं होनी चाहिए।
जीवन में उपयोग:
- इस श्लोक से हमें सीख मिलती है कि परीक्षा में अच्छे अंक पाने की जगह, अच्छे से पढ़ाई करने पर ध्यान दें।
- यदि हम मेहनत को केंद्र में रखेंगे, तो सफलता अपने आप आएगी।
English Explanation:
“You have the right to perform your duty, but never to the fruits of your actions. Do not be attached to the results, nor should you be idle.”
Krishna emphasizes selfless action (Karma Yoga) in this verse. He teaches that one must focus on their duty and not be overly concerned about success or failure.
श्लोक 2.48
संस्कृत:
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||
अर्थ:
हे धनंजय! योग में स्थित होकर, आसक्ति को त्यागकर अपने कर्तव्य का पालन करो। सफलता और असफलता को समान मानते हुए कार्य करना ही योग कहलाता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ कर्मयोग का सार समझाते हैं—कर्म तो करना ही है, लेकिन फल की चिंता किए बिना, निष्काम भाव से करना चाहिए। जो व्यक्ति सफलता और असफलता को समान रूप से देखता है, वही सच्चा योगी है।
English Explanation:
Krishna advises Arjuna to perform his duty with detachment, treating success and failure equally, as equanimity is the essence of yoga.
श्लोक 2.49
संस्कृत:
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||
अर्थ:
हे धनंजय! साधारण कर्म, बुद्धियोग से बहुत ही निम्न है। इसलिए तुम बुद्धि का आश्रय लो, क्योंकि फल की आस रखने वाले अत्यंत तुच्छ होते हैं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ समझा रहे हैं कि केवल कर्मकांडों में लिप्त रहना अधूरा है। श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जो बुद्धियोग (ज्ञानयुक्त कर्म) को अपनाता है। जो केवल कर्मफल की लालसा में जीते हैं, वे दुर्बल और कृपण कहलाते हैं।
English Explanation:
Krishna states that ordinary action is inferior to action performed with wisdom. Those who act only for rewards are pitiable.
श्लोक 2.50
संस्कृत:
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||
अर्थ:
बुद्धि से युक्त व्यक्ति इस संसार में पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है। इसलिए योग के लिए तत्पर हो जाओ, क्योंकि योग ही कर्म में कुशलता है।
व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग का सार प्रस्तुत करता है। जब कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है, तो वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है। कर्म में कुशलता का अर्थ है—पूर्ण समर्पण और ध्यान से कार्य करना, बिना किसी लालसा के।
English Explanation:
Krishna explains that a person with wisdom transcends both virtue and sin. Yoga is the art of skillful action, free from attachment.
स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति की विशेषताएँ | कर्मयोग द्वारा मोक्ष(श्लोक 51-60) Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
इस खंड में बताया गया है कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन को संयमित करता है, वह जीवन में स्थिर रहता है।

श्लोक 2.51 कर्मयोग द्वारा मोक्ष
संस्कृत:
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||
अर्थ:
बुद्धियुक्त (ज्ञानी) व्यक्ति अपने कर्मों के फल को त्यागकर जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं और मोक्ष (शाश्वत शांति) को प्राप्त करते हैं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जो व्यक्ति निष्काम कर्मयोग (फल की अपेक्षा किए बिना कर्म) को अपनाते हैं, वे जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होकर परम आनंद को प्राप्त करते हैं। यह मोक्ष की ओर जाने का मार्ग है।
English Explanation:
“The wise, endowed with an equanimous mind, renounce the fruits of their actions and become free from the bondage of birth and death, attaining the supreme state of peace.”
श्लोक 2.52 मोह का अंत
संस्कृत:
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||
अर्थ:
जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी दलदल को पार कर जाएगी, तब तुम सुनी-सुनाई बातों और पढ़े हुए शास्त्रों के प्रति उदासीन हो जाओगे।
व्याख्या:
- मोह (अज्ञान) व्यक्ति को बंधन में डालता है।
- जब व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसे बाहरी बातों का मोह नहीं रहता।
- वह सत्य को प्रत्यक्ष अनुभव कर लेता है।
English Explanation:
“When your intellect crosses the mire of delusion, you will become indifferent to all that has been heard and all that is yet to be heard.”
श्लोक 2.53 स्थिर बुद्धि की प्राप्ति
संस्कृत:
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||
अर्थ:
जब तुम्हारी बुद्धि शास्त्रों की विभिन्न धारणाओं से विचलित न होकर स्थिर हो जाएगी और परमात्मा में स्थित हो जाएगी, तब तुम योग (आध्यात्मिक ज्ञान) को प्राप्त कर लोगे।
व्याख्या:
- यह श्लोक सिखाता है कि सच्चा ज्ञान केवल पुस्तकों से नहीं, बल्कि ध्यान और आत्म-साक्षात्कार से आता है।
- जब व्यक्ति का मन पूरी तरह स्थिर हो जाता है, तभी वह वास्तविक योग को प्राप्त करता है।
English Explanation:
“When your intellect remains unwavering amidst conflicting scriptural teachings and becomes steady in the self, then you will attain the state of Yoga.”
श्लोक 2.54 स्थितप्रज्ञ का लक्षण
संस्कृत:
अर्जुन उवाच |
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव |
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ||
अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: हे केशव! स्थितप्रज्ञ (पूर्ण ज्ञान प्राप्त व्यक्ति) का क्या लक्षण है? वह कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, और कैसे चलता है?
व्याख्या:
- अर्जुन यहाँ जानना चाहते हैं कि आत्मज्ञानी व्यक्ति की पहचान क्या होती है।
- यह प्रश्न आत्म-साक्षात्कार की व्यावहारिक समझ पाने के लिए पूछा गया है।
English Explanation:
“Arjuna asked: O Keshava, what are the characteristics of one whose intellect is steady and who is established in divine consciousness? How does such a person speak, sit, and walk?”
श्लोक 2.55 आत्मतृप्त व्यक्ति
संस्कृत:
श्रीभगवानुवाच |
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन! जब कोई व्यक्ति अपने मन में उठने वाली सभी इच्छाओं का त्याग कर देता है और आत्मा में ही पूर्ण संतोष प्राप्त कर लेता है, तभी उसे स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति) कहा जाता है।
व्याख्या:
- इच्छाओं का त्याग ही आत्मज्ञान की पहचान है।
- आत्मतृप्त व्यक्ति बाहरी चीज़ों में सुख नहीं खोजता, बल्कि भीतर ही संतोष प्राप्त करता है।
English Explanation:
“The Blessed Lord said: O Arjuna, when one completely gives up all desires of the mind and is satisfied in the self alone, then he is called a person of steady wisdom.”
श्लोक 2.56 स्थितप्रज्ञ की विशेषता
संस्कृत:
श्रीभगवानुवाच |
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||
अर्थ:
जो व्यक्ति दुखों में विचलित नहीं होता, सुखों में जिसकी इच्छा समाप्त हो गई है, जो राग (मोह), भय और क्रोध से मुक्त है—उसे स्थितप्रज्ञ मुनि कहा जाता है।
व्याख्या:
- यह श्लोक सिखाता है कि ज्ञानी व्यक्ति न तो दुख से व्यथित होता है, न सुख में अहंकार करता है।
- स्थितप्रज्ञ व्यक्ति संसार की भावनात्मक उतार-चढ़ाव से मुक्त होता है।
English Explanation:
“One whose mind is undisturbed in sorrow, who is free from longing for pleasures, and who is beyond attachment, fear, and anger is called a sage of steady wisdom.”
श्लोक 2.57 समभाव का महत्व
संस्कृत:
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||
अर्थ:
जो व्यक्ति शुभ (अच्छे) और अशुभ (बुरे) दोनों में आसक्ति नहीं रखता, न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है—उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
व्याख्या:
- स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को संसारिक घटनाएँ प्रभावित नहीं करतीं।
- वह न सुख से अति आनंदित होता है, न दुख से हतोत्साहित।
English Explanation:
“One who is unattached to everything, who neither rejoices on obtaining good nor hates when encountering evil, has a steady intellect.”
श्लोक 2.58 इंद्रियों पर नियंत्रण
संस्कृत:
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||
अर्थ:
जब कोई व्यक्ति अपने इंद्रियों को कछुए के समान अपने भीतर समेट लेता है, तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
व्याख्या:
- कछुआ जैसे बाहरी संकट में अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति इंद्रियों को संयमित करता है।
- आत्म-संयम ही सच्ची स्थिरता की कुंजी है।
English Explanation:
“When one withdraws the senses from sense objects, just as a tortoise withdraws its limbs, then his wisdom becomes steady.”
श्लोक 2.59 इंद्रिय संयम का रहस्य
संस्कृत:
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||
अर्थ:
इंद्रियाँ विषयों से तो दूर हो जाती हैं, लेकिन उनका रस बना रहता है। जब व्यक्ति परम तत्व (परमात्मा) को देख लेता है, तब यह रस भी समाप्त हो जाता है।
व्याख्या:
- केवल बाहरी इंद्रिय संयम से कुछ नहीं होता, मन के भीतर भी विषयों की इच्छा समाप्त होनी चाहिए।
- जब व्यक्ति परम आनंद (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त कर लेता है, तभी वह संसारिक भोगों से पूरी तरह मुक्त होता है।
English Explanation:
“Objects of the senses turn away from the one who refrains from them, but the taste for them remains. However, even this taste disappears when one realizes the Supreme.”
श्लोक 2.60 मन और इंद्रियों का संघर्ष
संस्कृत:
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ||
अर्थ:
हे अर्जुन! यद्यपि बुद्धिमान व्यक्ति प्रयास करता है, फिर भी उसकी चंचल इंद्रियाँ बलपूर्वक उसका मन खींच लेती हैं।
व्याख्या:
- इंद्रियाँ अत्यंत प्रबल होती हैं और यदि उन पर पूर्ण नियंत्रण न हो, तो वे व्यक्ति के मन को भटका सकती हैं।
- इसलिए निरंतर अभ्यास और आत्म-संयम आवश्यक है।
English Explanation:
“O Arjuna, even a wise person who strives to control the mind can be forcibly carried away by the turbulent senses.”
मोह से मुक्ति और भक्ति मार्ग (श्लोक 61-70) Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi
श्रीकृष्ण अर्जुन को मोह से मुक्त होकर सच्चे भक्ति मार्ग को अपनाने का उपदेश देते हैं। इन श्लोकों में श्रीकृष्ण आत्मज्ञान, कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षणों को स्पष्ट करते हैं। जो व्यक्ति मोह और इच्छाओं से मुक्त होकर आत्मा में संतोष प्राप्त कर लेता है, वही सच्चा ज्ञानी और योगी कहलाता है।

श्लोक 2.61 इंद्रिय संयम का महत्व
संस्कृत:
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः |
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||
अर्थ:
जो व्यक्ति अपनी सभी इंद्रियों को नियंत्रित करके ध्यानपूर्वक मेरा (भगवान का) चिंतन करता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।
व्याख्या:
- मनुष्य की इंद्रियाँ चंचल होती हैं, इन्हें संयमित करना आवश्यक है।
- जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर लेता है, उसकी प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर हो जाती है।
English Explanation:
“One who restrains all the senses and focuses his mind on Me is firmly established in wisdom.”
श्लोक 2.62 इच्छा और क्रोध का चक्र
संस्कृत:
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||
अर्थ:
जब कोई व्यक्ति विषयों का चिंतन करता है, तो उसमें उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है, और इच्छा पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।
व्याख्या:
- मनुष्य का मन जिस पर लगातार सोचता है, उसी से वह बंध जाता है।
- इच्छाओं की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, जो विवेक का नाश कर सकता है।
English Explanation:
“Contemplating sense objects leads to attachment; attachment breeds desire; desire leads to anger.”
श्लोक 2.63 क्रोध से विनाश तक
संस्कृत:
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||
अर्थ:
क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से स्मृति का नाश होता है, स्मृति नष्ट होने से बुद्धि नष्ट होती है, और बुद्धि नष्ट होने से मनुष्य का पतन हो जाता है।
व्याख्या:
- क्रोध व्यक्ति को अंधा बना देता है, जिससे वह सही-गलत का विवेक खो देता है।
- विवेकहीन व्यक्ति अपने विनाश की ओर बढ़ जाता है।
English Explanation:
“Anger leads to delusion; delusion causes memory loss; loss of memory destroys intelligence; the destruction of intelligence leads to ruin.”
श्लोक 2.64 राग-द्वेष से मुक्त व्यक्ति
संस्कृत:
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् |
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ||
अर्थ:
जो व्यक्ति राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) से मुक्त होकर विषयों का भोग करता है और आत्मनियंत्रण में रहता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है।
व्याख्या:
- सुख-दुख, लाभ-हानि से ऊपर उठकर जीने वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी होता है।
- ऐसा व्यक्ति संतुलित और प्रसन्नचित्त रहता है।
English Explanation:
“One who is free from attachment and aversion, and enjoys sense objects with self-control, attains peace.”
श्लोक 2.65 शांतचित्त व्यक्ति की बुद्धि
संस्कृत:
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ||
अर्थ:
जब व्यक्ति के मन में शांति आ जाती है, तो उसके सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं, और उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
व्याख्या:
- मानसिक शांति ही सभी दुखों का अंत करती है।
- संतुलित और शांत मन वाला व्यक्ति ही सच्चे सुख को प्राप्त कर सकता है।
English Explanation:
“With peace of mind, all sorrows vanish, and one’s intellect remains steady.”
श्लोक 2.66 अशांत व्यक्ति को सुख नहीं
संस्कृत:
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ||
अर्थ:
जिसका मन संयमित नहीं है, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। जिसका मन स्थिर नहीं है, वह शांति प्राप्त नहीं कर सकता, और अशांत व्यक्ति को सुख कहां से मिलेगा?
व्याख्या:
- अशांत और चंचल मन वाला व्यक्ति जीवन में कभी सुखी नहीं रह सकता।
- सुखी जीवन के लिए मन और बुद्धि का संतुलन आवश्यक है।
English Explanation:
“There is no wisdom for the unsteady mind, no meditation for the unmeditative, no peace for the restless, and no happiness for the peaceless.”
श्लोक 2.67 इंद्रियों का प्रभाव
संस्कृत:
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते |
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ||
अर्थ:
जिस व्यक्ति का मन इंद्रियों के पीछे भागता है, उसकी बुद्धि वैसी ही बह जाती है, जैसे हवा नाव को पानी में बहा ले जाती है।
व्याख्या:
- अनियंत्रित इंद्रियाँ व्यक्ति को भटकाने वाली होती हैं।
- इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति ही सच्ची बुद्धि को प्राप्त कर सकता है।
English Explanation:
“As the wind carries away a boat on the water, so uncontrolled senses steal away a person’s wisdom.”
श्लोक 2.68 इंद्रिय संयम से स्थिर बुद्धि
संस्कृत:
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||
अर्थ:
जिस व्यक्ति ने अपनी सभी इंद्रियों को वश में कर लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
व्याख्या:
- आत्म-संयम के बिना स्थिर बुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती।
- इंद्रिय संयम ही आध्यात्मिक सफलता का मार्ग है।
English Explanation:
“One who has completely controlled his senses attains steady wisdom.”
श्लोक 2.69 ज्ञानी और अज्ञानी का दृष्टिकोण
संस्कृत:
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ||
अर्थ:
जो साधारण लोगों के लिए रात (अज्ञान) होती है, उसमें ज्ञानी व्यक्ति जागता है, और जिसमें अज्ञानी लोग जागते हैं, वह ज्ञानी के लिए रात के समान होती है।
व्याख्या:
- संसारिक लोग भौतिक वस्तुओं में रत रहते हैं, लेकिन ज्ञानी इनसे परे होते हैं।
- आध्यात्मिक जागरूकता भौतिक मोह से विपरीत दिशा में होती है।
English Explanation:
“What is night for all beings, the self-controlled one is awake in that. What is day for ordinary people is night for the sage.”
श्लोक 2.70 इच्छाओं की पूर्ति और शांति
संस्कृत:
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ||
अर्थ:
जिस प्रकार नदियों का जल सागर में समा जाता है, फिर भी सागर अपनी सीमा नहीं लांघता, उसी प्रकार जो व्यक्ति इच्छाओं से प्रभावित नहीं होता, वही शांति प्राप्त करता है।
व्याख्या:
- इच्छाओं से मुक्त व्यक्ति ही सच्चे सुख को प्राप्त कर सकता है।
- कामनाओं को संतुलित रखने वाला व्यक्ति ही स्थायी शांति में रहता है।
English Explanation:
“As rivers enter the ocean, yet it remains undisturbed, so too does the wise one remain unshaken by desires and attains peace.”

श्लोक 2.71 इच्छाओं से मुक्त व्यक्ति को शांति
संस्कृत:
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः |
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ||
अर्थ:
जो पुरुष सभी इच्छाओं को त्यागकर निस्पृह (आसक्तिरहित) होकर विचरण करता है, जो न किसी वस्तु को अपना मानता है और न अहंकार करता है, वही सच्ची शांति प्राप्त करता है।
व्याख्या:
- इच्छाएँ ही मनुष्य के अशांत रहने का कारण हैं।
- जो व्यक्ति न किसी चीज को अपना मानता है और न अहंकार करता है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त करता है।
- सांसारिक मोह और अहंकार का त्याग करके ही आत्मिक शांति पाई जा सकती है।
English Explanation:
“One who abandons all desires, moves without attachment, free from possessiveness and ego, attains true peace.”
श्लोक 2.72 ब्राह्मी स्थिति और मोक्ष
संस्कृत:
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति |
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||
अर्थ:
हे पार्थ! यह ब्राह्मी (आध्यात्मिक) स्थिति है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य कभी मोह को प्राप्त नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति इस स्थिति में स्थित रहते हुए अंतकाल में प्राण त्यागता है, तो वह ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।
व्याख्या:
- यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्च स्थिति को दर्शाता है।
- ब्राह्मी स्थिति का अर्थ है परमात्मा में स्थिर बुद्धि और मोह से मुक्ति।
- इस स्थिति को प्राप्त करने वाला व्यक्ति जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
- यदि कोई व्यक्ति जीवन के अंतिम क्षणों में भी इस स्थिति में स्थित रहता है, तो वह मोक्ष प्राप्त करता है।
English Explanation:
“This is the state of Brahman, O Partha. Attaining this, one is never deluded. Being established in it even at the time of death, one attains liberation.”
निष्कर्ष
“Bhagavad Gita Chapter 2 Explanation in Hindi” हमें सिखाता है कि जीवन में हर परिस्थिति में हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। मोह, भय और संशय को छोड़कर कर्मयोग का पालन करने से ही सफलता और शांति प्राप्त होती है।
FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
प्रश्न: भगवद गीता के अध्याय 2 में आत्मा के बारे में क्या बताया गया है?
उत्तर: श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा अमर, अविनाशी और शाश्वत है। शरीर नष्ट हो सकता है, लेकिन आत्मा कभी नष्ट नहीं होती।
प्रश्न: कर्मयोग का क्या महत्व है?
उत्तर: कर्मयोग हमें सिखाता है कि हमें बिना फल की चिंता किए अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा के साथ निभाना चाहिए।
प्रश्न: अर्जुन का सबसे बड़ा संशय क्या था?
उत्तर: अर्जुन अपने प्रियजनों के खिलाफ युद्ध करने को लेकर दुविधा में था और कर्तव्य व भावनाओं के बीच उलझ गया था।
प्रश्न: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्या उपदेश दिया?
उत्तर: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा की अमरता, कर्मयोग और निष्काम भाव से कार्य करने का महत्व समझाया।
प्रश्न: गीता के इस अध्याय से हम क्या सीख सकते हैं?
उत्तर: हमें अपने जीवन में आने वाली हर परिस्थिति को समान भाव से स्वीकार करना चाहिए और बिना किसी डर के अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।